Poetry and artwork from Pagli Prakriti (Vacuumed Sanctity) Comic
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
...और नदी अपनों को बहा कर ले गयी!
बहानों के फसाने चल गये,
ज़मानों के ज़माने ढल गये...
रुक गये कुछ जड़ों के वास्ते,
बाकी शहर कमाने चल दिये।
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
गुड़िया फ़िर भूखे पेट सो गयी...
समझाना कहाँ था मुश्किल,
क्यों समीर को मान बैठे साहिल?
तिनकों को बिखरने दिया,
साये को बिछड़ने दिया?
खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
रुदाली अपनी बोली कह गयी...
रौनक कहाँ खो गयी?
तानो को सह लिया,
बानो को बुन लिया।
कमरे के कोने में खुस-पुस शिकवों को गिन लिया।
खौफ की खाल उतार दो ना...
तानाशाहों के खेल बिगड़ दो ना!
शायद उतरी खाल देख दुनिया रंग बदले,
एक दुकान में गिरवी रखा हमारा सावन...
शायद उस दुकान का निज़ाम बदले!
घिसटती ज़िन्दगी में जो ख्वाहिशें आधी रह गयीं,
कुछ पल जीकर उन्हें सुधार दो ना!
खौफ की खाल उतार दो ना...
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खौफ की खाल उतार दो ना...
ReplyDeleteतानाशाहों के खेल बिगड़ दो ना!
वाह !! मोहित खौफ की खाल उतारती रचना बड़ी रोचक और उम्दा है | बहुत खूब !!!