एक सच्ची घटना पर आधारित फिल्म। यह ईमानदार प्रयास प्रकाश डालता है भारतीय सरकारी प्रणाली और उसके मुलाज़िमों पर ना सिर्फ सुस्त, कामचोर, घूसखोर होते है बल्कि किसी सच्चे, मेहनती इंसान को भी आगे बढ़ता नहीं देखना चाहते चाहे इसमें दूसरो का भला ही क्यों ना छिपा हो। असल घटना तो लम्बी और दर्दनाक थी इसलिए इस रूपांतरण में कुछ बातें बदली गयी पर फिर भी फिल्म का संदेश साफ़ मिला।
कहानी एक डॉक्टर-वैज्ञानिक की है जो वर्षो तक कुष्ट रोग पर अनुसंधान करता है, अपनी निजी ज़िन्दगी और करियर को दांव पर लगा कर। इस धुन में सवार वो अपने करीबियों, खासकर अपनी पत्नी को बहुत तकलीफ पहुँचाता है पर वो उसका साथ निभाते है। डॉक्टर की मेहनत में कोई कमी नहीं थी पर काम का अगला कदम यानी व्यवस्था और उसके भ्रष्ट लोगो पर निर्भरता। इसमें दुखी डॉक्टर अपेक्षित व्यवहार नहीं करता और कई किताबी ज्ञान रखने वाले नाम के महकमे वालो को नाराज़ कर बैठता है। इस बीच डैमेज कंट्रोल और काउन्सलिंग की कोशिशें होती है, करीबी समझाते है पर सब बेकार। तो इस अदने डॉक्टर-वैज्ञानिक और सिस्टम के बीच किसकी जीत हुयी, इसके लिये फिल्म देखिये।
फिल्म का प्लाट तो बेहतरीन और अलग है ही पटकथा में तपन सिन्हा द्वारा की गयी मेहनत, रिसर्च साफ़ झलकती है। वैज्ञानिक भाषा, एक्सप्लेनेशन, बैकड्रॉप कमाल के है। थोड़ी कमी बस बजट में दिखी जो समानांतर सिनेमा में आम बात है। अभिनय के मामले में फिल्म के मुख्य किरदार पंकज कपूर डॉक्टर रॉय के किरदार में घुल गये है, उनकी कोई सीमा ही नहीं लगती और दर्शक के मन में अलग-अलग दृश्यों में वो किरदार अनुरूप क्या कर देंगे देखने की जिज्ञासा रहती है, ऐसा बहुत कम कलाकारों के साथ होता है। डॉक्टर रॉय की पत्नी की निरंतर शांत व्यथा तत्कालीन सिनेमा में शबाना आज़मी के अलावा शायद ही कोई निभा पाता। युवा पत्रकार बने इरफ़ान खान ने सीमित संवादों और दृश्यों के बावजूद भी दिल जीत लिया। विजयेंद्र घाटके के किरदार का उचित प्रयोग नहीं किया गया जैसा इस उम्दा अभिनेता के साथ अक्सर होता आया है। अब इनकी उम्र की वजह से इनका करियर भी सेमी-रिटायरमेंट में चला गया है, हालाँकि इनकी बेटी सागरिका घाटके अब बॉलीवुड में सक्रीय है। । दीपा साही को अपने मसाला किरदारों से अलग पर सीमित रोल मिला।
भारतीय परिवेश के इस पेचीदा विषय को समझाते हुए लिखी गयी पटकथा कुछ जगह मौलिक बात से हटती और टूटती सी लगती है जो स्वाभाविक बात है पर विषय की गहराई और मार्मिकता कम नहीं होती। फिल्म का ट्रीटमेंट आपको दूरदर्शन के स्वर्णिम युग की याद भी दिलवायेगा, इस फिल्म को मै 8.5/10 रेटिंग दूंगा।
421 Brand Beedi Grade - A (Rating 8/10)
- Mohit
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