विदित अपने दोस्त नकुल को कुछ दिनों के लिए अपने घर रहने ले आया। नकुल एक मनोचिकित्सक था पर विदित के कहने पर उसे अपना परिचय एक बेरोज़गार इंजीनियर के रूप में देना पड़ा जो कुछ साक्षात्कार देने के लिए एक हफ्ता विदित के घर रहने आया था। वजह थे विदित के पिता जो पुलिस निरीक्षक पद से कुछ महीनो पहले रिटायर हुए थे। विदित चाहता था कि नकुल उसके पिता के व्यवहार को ओब्ज़र्व करके उनके गुस्सैल, रूखी प्रवित्ति की वजह खोजे।
हफ्ते भर बाद नकुल ने अपना निष्कर्ष अपने मित्र को बताया।
"रिटायरमेंट के बाद अक्सर जीवन के इस चरण में ऐसा व्यवहार देखने को मिलता है। पर अंकल का केस अलग है। जीवनभर गावों, देहात में थानेदारी करने के कारण ये दिन के चौबीसों घंटे मुंशी-दीवान, सिपाही, मुखबिर, मुजरिम या आम जनता से घिरे रहते जो या तो इनसे डरते थे या उनका इनसे कोई मतलब रहता था। तो ना कभी इनकी बात काटी जाती, ना इन्हे कोई समझाने की कोशिश करता। कभी-कबार का ऊपर से अधिकारीयों का निरिक्षण इनकी दिनचर्या के आगे ना के बराबर होता होगा। इतने दशको तक ये रूटीन चलता रहा इसलिए अब अपने से अलग कोई और राय या इनकी बात काटता कोई भी इन्हे बर्दाश्त नहीं होता और अक्सर इनके गुस्से का इंस्टेंट नूडल लावा फ़ूट पड़ता है।"
विदित - "हम्म...ऐसा कुछ मुझे लग भी रहा था....फिर इस समस्या का क्या हल है?"
नकुल - "व्यक्ति को 100 प्रतिशत बदलने के बजाये धीरे-धीरे दशमलव में एक सामंजस्य बनाने लायक बीच की स्थिति तक लाने की कोशिश करो। छोटी बातों की टेंशन को उन तक आने से पहले निपटा दो। उनकी दिनचर्या में ध्यान बंटाने के लिए कुछ एक्टिविटीज़ जोड़ो। बस....और कभी-कभी डांट-फटकार, शिकायत सुन भी लो, हमेशा तुम या आंटी भी सही नहीं होते। "
समाप्त!
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