जो बीत गया, उसे बदला नहीं जा सकता - लेकिन उससे सीख ज़रूर लेनी चाहिए। जहां पदक तालिका में जापान, अफ़गानिस्तान जैसे उभरते देशों को देखना अच्छा रहा, लेकिन फिर याद आया कि किसी द्विपक्षीय सीरीज़ की वजह से भारत ने एशियाई खेलों में जैसे थाली में सजा के रखे गए चार पदकों को नहीं लिया। पुरुष टीम का कैलेंडर आईपीएल आदि की वजह से समझ में आता है (वैसे यह वजह भी सही नहीं), पर महिलाओं को 2010 और 2014 के दो स्वर्ण पदक जीतने के लिए क्यों नहीं भेजा गया, मेरी समझ से परे है। अगर भारत अपनी रिज़र्व टीमें भी भेजे, तो स्वर्ण न सही पर पदक ज़रूर आ सकते हैं।
उस समय इस बात पर काफ़ी हंगामा और कोर्ट केस भी हुआ था। अंत में लचीले कानूनों पर अमीर बीसीसीआई बोर्ड की जीत हुई और फ़ैसला दिया गया कि तकनीकी रूप से भारतीय क्रिकेट टीम - भारत की टीम न होकर, बीसीसीआई संस्था की टीम है। यह खबर जानकार बड़ी निराशा हुई। इस बाबत मैंने लल्लनटॉप मीडिया के एक कार्यक्रम में नामी भारतीय महिला क्रिकेटर शिखा पांडे से सवाल किया (और उन्हें जापान जैसे देशों के क्रिकेट में पदक जीतने का उदाहरण भी दिया), तो उन्होंने डिप्लोमेटिक से जवाब में बताया कि एक क्रिकेटर होने के नाते उनका मुख्य काम क्रिकेट खेलना है और बोर्ड की नीतियों या प्रबंधन के फ़ैसलों की उन्हें खास जानकारी नहीं है...सार्वजनिक मंच पर मुझे ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी।
अब देखना है कि 2022 के खेलों में बीसीसीआई का क्या रुख रहता हैं।