सन् 1947 में रूपनगर के पास जंगलों एवम समुद्र से सटे तटवर्ती इलाके मे दो बड़े स्थानीय कबीलों तरजाक और रीमाली ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के कारण वहाँ से गुजरने वाले जहाज़ और आस-पास के बंदरगाहों के व्यापार पर असर पड़ने लगा। शांत कबीलों के अप्रत्याशित विद्रोह के दमन के लिए कर्नल मार्क डिकोस्टा के नेत्रत्व मे 71 लोगो की 'डूम प्लाटून' को भेजा गया। उनका लक्ष्य था हालात को सामान्य बनाना और उस स्थान और कबीले मे ब्रिटिश राज को फिर से कायम करना।
मिशन जब एक हफ्ते से लंबा खिंच गया तो मार्क सोच में पड़ गया। जिस ऑपरेशन को वह 4 दिन की बात समझ रहा था, उसमे इतना समय कैसे लग सकता था। वरिष्ठ सदस्यों की मीटिंग के बाद जब कोई निष्कर्ष नहीं निकला तो मार्क ने अपने 2 ख़ास गुप्तचरों को प्लाटून की जासूसी पर लगाया साथ ही वह खुद भी रात में रूप बदल कर प्लाटून की गतिविधियां जांचने लगा। रात के पौने तीन बजे उसे जंगलों में कुछ हलचल दिखाई दी। उस स्थान के पास पहुँचने पर उसे प्लाटून का मेजर रसल और एक कबीले की स्त्री बात करते दिखे। वह महिला रसल के लिए फलों की टोकरी लाई थी और दोनों टूटी-फूटी बोली में एक-दूसरे के आलिंगन में प्यार भरी बातें कर रहे थे। कर्नल ने तुरंत ही पहरा दे रहे सैनिको के साथ मेजर और उस महिला को बंदी बना लिया। सुबह उनकी पेशी में मेजर रसल ने सफाई देते हुए कहा कि व्यापार के लालच में पड़ी ब्रिटिश सरकार की गतिविधियों के कारण इन क़बीलों का प्राकृतिक निवास, खाने और रहने के साधन धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं। यही कारण है कि अब तक ब्रिटिश राज की सभी बातों का पालन करने वाले कबीलों के विद्रोह का बिगुल बजाया। प्लाटून के आने पर जब युद्ध की स्थिति बनने लगी तो अपने जान की परवाह किये बिना रीमाली कबीले की एक साधारण स्त्री शीबा जंगल में बढ़ रहे मेजर को समझाने आई। शीबा के भोलेपन और जज़्बे ने रसल को सुपर मोहित कर दिया। इस वजह से रसल गलत जानकारी देकर प्लाटून को गलत दिशाओं में भटका रहा था। रसल के आश्वासन, धैर्य से शीबा की बात सुनने और निस्वार्थ कबीलों की मदद करने से शीबा को भी उस से प्रेम हो गया। क्रोधित मार्क ने रसल को समझाया की प्लाटून के पास बस 2-3 हफ़्तों लायक राशन बचा है इस दूर-दराज़ के इलाके में, चार-पांच सौ कबीलेवासीयों और अपने प्रेम के चक्कर में वह अपने साथियों की जान दांव पर नहीं लगा सकता। धरती पर बोझ ऐसे नाकारा कई कबीलों और भारतियों को ख़त्म कर ब्रिटिश सरकार ने इस देश पर एहसान ही किया है। जब मेजर रसल ने आर्डर मानने से इंकार कर दिया तब कर्नल मार्क ने उन्हें मौत का फरमान सुनाया। रसल और शीबा की अंतिम इच्छा एक आखरी बार एक-दूसरे से लिपटकर मरने की थी। मुस्कुराते हुए रसल ने शीबा को बंदूकधारियों से मुंह फिराकर अपनी ओर देखने को कहा, कुछ पल को रसल की आँखों में देख रही शीबा जैसे भूल गई की यह उसके अंतिम पल हैं। कितनी शांत और दिलासे भरी आँखें थी वो जो ना जाने कैसे मन में चल रहे तूफ़ान को खुद तक आने से रोकें हुए थी? चलो बहुत हो गया यह इमोशनल ड्रामा इन दोनों का, उड़ा दो इन बेचारे प्यार में पागल पंछियों को…हा हा हा...कर्नल के डार्क ह्यूमर पर उसके अलावा और कोई नहीं हँसा। मार्क के निर्देशों पर उसके सैनिको ने अन्य सैनिको सामने उन 2 प्रेमियों को गोलियों से भून दिया। कुछ दिनों के प्यार में जैसे दोनों ने पूरा जीवन जी लिया था इसलिए आखरी वक़्त में एक-दूसरे से लिपटे रसल और शीबा के चेहरों पर संतोष के भाव थे। कर्नल मार्क का ऐसा निर्दयी रूप और साथी मेजर रसल की मौत देख कर कर कई सैनिकों ने उसका साथ छोड़ कर वापस जाने का निर्णय लिया। आदेशों की अवहेलना और खुद के नेतृत्व पर इतने सवाल उठते देख कर मार्क आगबबूला हो उठा। वापस लौटते हुए सैनिको पर उसने अपने वफादार सैनिको से गोलियों की बरसात करवा दी।
मार्क ने मन ही मन सोचा कि चलो अच्छा हुआ अब राशन ज़्यादा दिन चलेगा और मिशन से लौटने पर इतने सैनिको का शहीद हो जाने पर उसकी बहादुरी, अडिगता के चर्चे होंगे। हालाँकि, मिशन के लगभग तीन हफ़्तों बाद ही इंग्लैंड की सरकार ने भारत छोड़ने की आधिकारिक घोषणा की, पर डूम प्लाटून का दस्ता अपने मिशन के बीच में था और दुर्गम क्षेत्र, दूरदराज़ के मिशन में उन्हें भारत की स्वतंत्रता की जानकारी नहीं मिली। मार्क की हरकत से चिढे उस स्थान के आस-पास के बाकी कबीले भी डूम प्लाटून को मिलकर ख़त्म करने में तरजाक और रीमाली कबीलों के साथ शामिल हो गए। डूम प्लाटून पर चारो तरफ से आक्रमण हो गया। समय के हिसाब से प्लाटून के पास अत्याधुनिक हथियार थे पर इतने जंगलवासियों की संख्या के सामने प्लाटून कमज़ोर पड़ रही थी। प्लाटून को उम्मीद थी कि इतना समय बीत जाने के कारण उनकी मदद के लिए इंग्लैंड सरकार ज़रूर कुछ करेगी पर भारत की आज़ादी के समय बड़े स्तर पर हुई इतनी अधिक घटनाओ के बीच यह बात दब सी गयी और डूम पलाटून के सारे सिपाही कुछ दिनों के संघर्ष के बाद मारे गए। मार्क चाहता तो कबीलों के सामने आत्मसमर्पण कर सकता था पर उसका अहंकार उसकी मौत की वजह बना। जंगलवासियों को भी आज़ादी भारत के साथ मिली पर जंगलियों को आज़ादी मिलने का तरीका भारत जैसा नहीं था।
कुछ दिनों तक सब सामान्य रहने के बाद उन तटवर्ती इलाकों मे बसे कबीलों और जंगलो मे अजीब घटनाये होने लगी। एक-एक कर कबीलों के सरदारों को भ्रामक, डरावने दृश्य नज़र आने लगे, फिर सबकी हरकतें भूतहा होने लगी। कुछ तो अपने ही भाई-बंधुओं को मारकर उनके खून को कटोरी में भर उसके साथ रोटी, खाना खाने लगे। अगर त्रस्त आकर कबीले का सरदार बदला जाता तो उसमे भी वैसा पागलपन आ जाता। हर जगह यह बात फैली की मार्क और उसके ख़ास साथियों की आत्माएं कबीलों के सरदारों के शरीर में आ जाती हैं और उन्हें मारने के बाद ही हटती हैं। जब हर जगह कबीले का कोई सरदार ना होने की बात पर सहमति बनी तो फिर कुछ दिन सामान्य बीते। कुछ दिन बात फिर आत्माओं द्वारा लोगो को सम्मोहन से दलदल में बुलाकर खींच लेने के मामले आम होने लगे। अगर कोई जगह छोड़ कर मुख्य भारत में जाता, कुछ समय बाद उसके भी मरने की खबर आती। नवजात शिशु पेड़ों पर उलटे लटक कर कबीले वालों को इंग्लिश में गालियां देने लगे। इन्ही शिशुओं में से कुछ दूध पीते हुए अपनी माताओं के वक्षस्थल से मांस नोचकर खाने लगे। इतनी घटनाओ के बीच वहां के कई कबीले एक के बाद एक रहस्यमय तरीके से ख़त्म होते चले गए। कुछ महीनो बाद वहां रूपनगर से गुज़रती नदी की बाढ़ का ऐसा असर हुआ की वो पूरा इलाका जलमग्न हो गया। बचे हुए कबीलों को भारतीय सरकार ने रूपनगर शहर में पुनर्स्थापित किया।
कई दशकों बाद जलमग्न जंगली इलाका धीरे-धीरे सामान्य हुआ। प्रगति कई ओर अग्रसर रूपनगर शहर का विस्तार करने को जगह ढूँढ रहे उद्योगपतियों और सरकार की नज़र उस तटवर्ती इलाके और जंगलो पर पड़ी। जंगल के कुछ हिस्सों की कटाई और निर्माण का काम शुरू हुआ। जहाँ हजारो मजदूरों के सामने फिर से आई डूम पलाटून की दहशत क्योकि वो अभी भी ब्रिटिश सरकार के आदेशानुसार उन इलाकों मे सिर्फ ब्रिटिश राज स्थापित करना चाहते थे। पहले तो ऐसी अनियमित घटनाओं को कल्पना मानकर नज़रअंदाज़ किया जाता रहा फिर भूतहा बातों का होना आम हो गया जिसके चलते कई मज़दूर और सुपरवाइज़र जगह छोड़ कर भाग गए। अपने पापों और दहशत से बढ़ी शक्ति के फलस्वरूप एक दिन डूम प्लाटून साकार रूप में आई, हजारो मजदूरों मे से कुछ को सबके सामने निर्दयता से मार कर डूम पलाटून ने मजदूरों मे अपनी दहशत फैलाई और वहाँ आई बहुत सी निर्माण सामग्री से मजदूरों को ब्रिटिश कालीन इमारते बनाने का निर्देश दिया। उन्होंने मजदूरों और उनके मालिको मे कोई भेद-भाव नहीं किया और सभी से बंधवा मजदूरी शुरू करवायी।
अपने साथियों की मदद से एंथोनी के कौवे प्रिंस ने इतनी जानकारी जुटायी। -
क्या है डूम प्लाटून
*) - डूम प्लाटून के सभी सैनिक अपनी लाल वर्दी मे है और उनका मुखिया है कर्नल मार्क डिकोस्टा।
*) - ये मार्क और उसके वफादार 1947 में रूपनगर के तटवर्ती और जंगली इलाकों मे मर चुके है। प्लाटून में आंतरिक मतभेद के बाद मार्क ने अपने ही कई सैनिको को जंगल में मरवा डाला।
*) - इनके हथियार इनकी पुरानी बंदूके है जिनकी गोलियां कभी ख़त्म नहीं होती।
*) - इस पलाटून को इंग्लैंड सरकार से आदेश मिला था की उन तटवर्ती और जंगली इलाकों मे ब्रिटिश राज दोबारा स्थापित हो ये आज भी उस आदेश पर चल रहे है और जो भी इनके रास्ते मे आएगा उसे ये मार देंगे।
*) - ये बिना थके सालो से उस इलाके की रक्षा कर रहे है और ब्रिटिश सरकार की मदद का इंतज़ार कर रहे हैं।
*) - जंगल में अलग-अलग स्थान पर लाल वर्दी में कुछ आत्माएं और भटकती हैं (मेजर रसल और कर्नल द्वारा मारे गए अन्य सैनिक) वो आत्माएं किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाती।]
प्रिंस के ज़रिये यह खबर कुछ ही देर मे एंथोनी तक पहुंची और एंथोनी तुंरत रूपनगर के उस निर्जन इलाके तक पहुंचा जहाँ आज काफी हलचल थी। एंथोनी को डूम पलाटून की कहानी और इतिहास पता चल चुका था। उसने अंदाज़ा लगाया कि डूम प्लाटून और मार्क उसके समझाने पर नहीं मानेंगे। उसकी आशा अनुरूप उनको समझाने की एंथोनी की सारी कोशिशें, तर्क बेकार गए। अंततः उसका और डूम पलाटून का संघर्ष शुरू हो गया। एंथोनी एक शक्तिशाली मुर्दा था पर इतनी आत्माओं से यह संघर्ष अंतहीन सा लग रहा था। वह कुछ आत्माओं को ठंडी आग में जकड़ता तो कुछ उसपर पीछे से हमला कर देती पर जल्द ही प्रिंस की खबर पर एंथोनी की पुरानी मित्र वेनू उर्फ़ सजा भी अपने आत्मा रूप में एंथोनी की मदद करने आ गयी। एंथोनी ने वेनू के तिलिस्म की मदद से डूम प्लाटून को एक जगह बांध कर उन पर एकसाथ ठंडी आग का प्रहार किया वो आत्मायें कुछ देर तड़पने के बाद गायब हो गयी. एंथोनी को लगा की समस्या सुलझ गयी और उसने वहाँ फसे हुए लोगो को निकाला और वापस रूपनगर शहर के मुख्य इलाकों की और चल पड़ा। कुछ ही समय बाद उसे पता चला की उस जंगली इलाके के आस-पास बनी रिहाइशी कॉलोनियों मे डूम प्लाटून फिर से अपना आतंक मचा रही है और वहाँ के लोगो को ज़बरदस्ती पकड़ कर जंगल मे अधूरे पड़े निर्माण को बंनाने में लगा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा था क्योकि उद्योगपतियों और सरकार ने जंगली इलाकों की काफी कटाई करवा दी थी जिस वजह से डूम पलाटून को वो कॉलोनियां भी अपने क्षेत्र का हिस्सा लगने लगी थी। एंथोनी फिर वहाँ पहुंचा और एक बार फिर से थोड़े संघर्ष के बाद डूम प्लाटून गायब हो गयी। यह सिलसिला चलता रहा। एक लडाई के दौरान एंथोनी के ये पूछने पर की सब ख़त्म हो जाने के इतने साल बाद भी डूम पलाटून वो क्षेत्र छोड़ कर जाती क्यों नहीं तो कर्नल मार्क डिकोस्टा का कहना था की उन्हें ब्रिटिश सरकार का आदेश मिला है। काफी सोच-विचार के बाद एंथोनी अपने दोस्त रूपनगर डीएसपी इतिहास की मदद से दिल्ली से इंग्लैंड के दूतावास से कुछ ब्रिटिश अधिकारीयों को लाया और उनसे आतंक मचा रही डूम पलाटून को ये आदेश दिलवाया की वो अब किसी भारतीय को परेशान ना करे और ये क्षेत्र छोड़ कर पास ही समुद्र मे बने छोटे से निर्जन दहलवी द्वीप पर रहे। आखिरकार एक संघर्षपूर्ण भयावह अध्याय की समाप्ति के बाद एंथोनी की आत्मा अपनी कब्र में सोने चली। अगले दिन जब वह वापस कब्र फाड़कर निकलने को हुआ तो एक तिलिस्म ने उसे रोक लिया। सज़ा के शरीर को कब्ज़े में लेकर कर्नल मार्क ने एंथोनी की कब्र को तिलिस्म से बांध दिया था। अब तक अहंकार में चूर मार्क ने बदली सरकार का आदेश मानने से इंकार कर दिया। उसके अनुसार ब्रिटिश राज की सरकार अलग थी, वह इस कठपुतली सरकार का आदेश मानने को बाध्य नहीं था। तिलिस्म की सीमा के अंदर आये बगैर कब्र के ऊपर चिल्लाते प्रिंस ने ये बातें एंथोनी तक प्रेषित की।
इधर डूम प्लाटून अपने अधूरे निर्माण कार्य को पूरे करने में लग गयी। सरकार का ध्यान इस दिशा में गया और अर्धसैनिक बल भेजे गए लेकिन अदृश्य दुश्मन से भला वो कैसे लड़ पाते। उन सबके हथियार छीन कर, डूम प्लाटून ने उन्हें मज़दूरी पर लगा दिया। स्थिति गंभीर हो रही थी और मदद आने तक सरकार, स्थानीय प्रशासन को विचार-विमर्श करना था। ऐसा संभव था कि अपने सफलता से उत्साहित होकर मार्क अपनी प्लाटून के साथ रूपनगर शहर की तरफ कूच करे। अब या तो उस क्षेत्र को क्वारंटाइन घोषित कर सब खाली करवा सकती थी या और मदद भेजने का जोखिम उठा सकती थी, लेकिन हर गुज़रता पल उनकी मुश्किलें और शहर को नुक्सान बढ़ा रहा था। एंथोनी ने प्रिंस को सज़ा की आत्मा से तिलिस्म तोड़ने का तरीका सुझाया। सज़ा के द्वारा तिलिस्म तोड़ने का तरीका जानकर प्रिंस ने तिलिस्म के चारो ओर अपनी चोंच से एक बड़ा तिलिस्म बनाकर उसे निष्फल किया और आखिरकार एंथोनी अपनी कब्र से बाहर आ पाया। मौके की गंभीरता के बाद भी ज़मीन पर तिलिस्म बनाने में प्रिंस की घिसी हुई चोंच देखकर कुछ पलों के लिए एंथोनी अपनी हँसी रोक नहीं पाया, मदद करने के बाद भी एंथोनी को उसपर हंसता देख प्रिंस ने अपनी उबड़-खाबड़ चोंच एंथोनी को चुभाई और कान पकड़ते हुए माफ़ी मांगते एंथोनी ने प्रिंस की चोंच की मरहम-पट्टी की।
कुछ देर में ही एंथोनी एक बार फिर डूम प्लाटून ने सामने था। इस बार कर्नल मार्क ने उस पर तंज कसा, "इस तरह कब तक यह खेल चलता रहेगा मुर्दे एंथोनी? तू एक शक्तिशाली आत्मा है लेकिन हमारी संख्या के आगे तू हमे रोक नहीं सकता। तू अपनी साथी सज़ा के साथ हमारे काम में बाधा डालेगा, हमे रोकेगा। कुछ देर अपनी ठंडी आग में तड़पा लेगा और हम लोग गायब हो जाएंगे। तेरी इतनी मेहनत का फायदा क्या है? हमे मारा नहीं जा सकता, जबकि हम धीरे-धीरे तेरे शरीर को नुक्सान पहुंचा सकते हैं। हम एक जगह से भागेंगे तो फिर कहीं ना कहीं आ जाएंगे! पिछली बार तिलिस्म से कब्र में तेरा शरीर रोका था, अगर अब भी तू ना माना तो इस बार यह सुनिश्चित करूँगा की तेरा शरीर नष्ट हो जाए। सबकी भलाई इसमें ही है कि तू बार-बार हमारे रास्ते में आना छोड़ दे।"
एंथोनी - "तेरे जैसों के मुँह से सबकी भलाई की बातें शोभा नहीं देती कर्नल! एक बात मेरी भी जान ले, तुझसे पहले तेरे जैसी कई ढीट आत्माओं से पाला पड़ा है। एंथोनी का शरीर नष्ट करेगा तो आत्मा रूप में तेरे काम को रोकने आऊंगा। मुझे कभी मुक्ति मिल भी गयी तो इतना याद रख कि इंसाफ और मज़लूम की चीखों का हिसाब लेने के लिए एंथोनी स्वर्ग छोड़ कर आ सकता है। बड़े किस्से सुने हैं तेरी ईगो के जिसे तू प्रेम और लोगो की जान से ऊपर रखता है, देखते हैं पहले मैं डिगता हूँ या तू रास्ता देता है!"
कर्नल मार्क - "ठीक है! जैसी तेरी मर्ज़ी..."
एंथोनी - "एक मिनट! एक बात रह गयी...ज़रा गिनकर बताना तुझे मिलाकर तेरे सैनिक कितने हैं?"
कर्नल मार्क - "35...क्यों? अब इनके लिए कोई नया तिलिस्म लाया है?"
एंथोनी - "नहीं! 71 लोगो की डूम प्लाटून में से 35 निकले तो बचे 36! आओ तुम्हे बाकी सदस्यों से मिलवाता हूँ। मिलो दिल, भावनाओं वाले डूम प्लाटून के दूसरे हिस्से से जिसका नेतृत्व कर रहें हैं मेजर रसल। अब हुई कुछ बराबर की टक्कर। सज़ा की मदद से तुम्हारा इतिहास जानने के बाद जंगल में कहाँ-कहाँ भटकती इन आत्माओं को ढूंढकर एकसाथ, एक नेतृत्व में लाना था बस।"
सज़ा ने तट के पास निर्जन दहलवी द्वीप पर एक रास्ते को छोड़कर तिलिस्म से बांध दिया। मेजर रसल ने नेतृत्व में सैनिक मार्क के वफादार सैनिकों को उस तरफ धकेलने लगे। वहीं अपने पापों की वजह से अन्य आत्माओं से कहीं शक्तिशाली दुरात्मा मार्क को एंथोनी और सज़ा अपने सधे हुए वारों से उस ओर ले जाने लगे। सभी सैनिको के द्वीप के अंदर पहुँचने के बाद सज़ा ने बाहर से तिलिस्मी द्वार बंद कर उन्हें दहलवी द्वीप में कैद कर दिया। इसके बाद तुरंत ही डीएसपी इतिहास और अन्य अधिकारियों की सिफारिश पर द्वीप को आधिकारिक रूप से संक्रमित एव खतरनाक घोषित कर दिया गया।
....अब अगर कोई भटकी नौका या यात्री इस द्वीप पर आता है तो उसे 2 बराबर संख्या के गुट निरंतर युद्ध करते दिखाई देते हैं। बराबर क्यों? शायद इसलिए की मेजर रसल द्वीप पर नहीं जंगलों में शीबा के पास था और दोनों आत्माएं लगभग सत्तर साल पहले की उस रात की तरह ही टूटी-फूटी भाषा में प्यार भरा संवाद कर रहीं थी। ....क्या आप दहलवी द्वीप पर जाना चाहेंगे?
समाप्त!