अंतरजाल की दुनिया और जीवन में मोहित शर्मा 'ज़हन' के बिखरे रत्नों में से कुछ...

Monday, December 25, 2017

विचारों पर विचार...


कहानी लिखते समय कभी-कभी एक दुविधा का सामना करना पड़ता है। एक विचार को आधार बनाकर एक कहानी (या लेख) गढ़ी गयी। उस विचार से बहुत से अन्य बातें, विचार, उदाहरण और निष्कर्ष जुड़े होते हैं। अब लेखक के पास दो विकल्प हैं या तो केवल उस मूल विचार को उभार कर कहानी लिख दे या फिर उस विचार के साथ बढ़ती बातों को उस कहानी में शामिल करे। विचार को मुख्य आकर्षण की तरह प्रस्तुत करने में ये संशय नहीं रहता कि पाठक का ध्यान उस विचार पर नहीं जाएगा। साथ ही पाठक को कुछ नयेपन का अनुभव होता है। इसका मतलब ये नहीं कि मूल विचार से अलग कुछ लिखा ही ना जाए। ये कुछ वैसा ही है जैसे दवाओं या रसायनों को जलमिश्रित (डायल्यूट) कर उनका सही अनुपात बनाया जाता है। विचार को घटनाओं एवम किरदारों से इतना डायल्यूट किया जाए कि उसका प्रभाव बना रहे और वो अधपका ना लगे। 

कथा में पूरा ध्यान आईडिया पर होने का एक घाटा यह है कि पाठक को उस रचना में अधूरापन लग सकता है। उन्हें प्रभावी विचार वाली कहानी पढ़कर ये लग सकता है कि इस कहानी में और बहुत कुछ होना चाहिए था। कहानी की घटनाएं और पात्र एक औपचारिकता से लग सकते हैं। वहीं अधिक डायल्यूट होने पर घटनाओं, किरदारों की अन्य बातों में विचार कहीं घुल सा जाता है। कभी-कभार तो पाठक का रडार विचार को पकड़ ही नहीं पाता। कुछ अपवाद में ऐसा इच्छित हो सकता है पर अधिकतर कहानी को 'कहानी' बनाने में उसका आधार गुम हो जाता है। 

विचारों से कथा या लेख बनाने के इन प्रयोगों में कभी मैं आईडिया को प्राथमिकता देता हूँ तो कभी अन्य घटकों से मिश्रित कहानी को लिखता हूँ। स्थिति अनुसार दोनों तरीके आज़माते रहना चाहिए। अगर किसी विचार में काफी सम्भावना दिखे तो उसपर दोनों तरीकों से लिखना चाहिए। वैसे एक बार किसी विचार पर कुछ लिखने के बाद तुरंत ही दोबारा (चाहे अलग तरीके से सही) उसपर लिखने का मन नहीं करता...अगर ऐसा कुछ है, तो भी उस आईडिया को आगे के लिए बचा कर रख लें। बाद में कभी जब मन करे तब अन्य तरीके से लिखने का प्रयास करें।
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Art - Anastasia Glushkova
#ज़हन

Monday, December 18, 2017

Upcoming Anthology


#update Completed a short comic script "Saadhe 4 Feet" for Ghosts of India Anthology Project (Comic Theory) :) #mohitness #comictheory #art 

Artwork by Harendra Saini on my story...



Comics Theory founder Mr. SNath Mahto presented artworks (by artist Harendra Saini on my script) in 8th Comic Fan Fest, 17 December 2017

Tuesday, December 12, 2017

सामाजिक समस्याओं में अंतर (लेख)

Art - Mari Bobghiashvili‎
समस्या जीवन का अभिन्न अंग है। कुछ पाना है, कुछ करना है...सांस तक लेते रहना है तो भी कोई ना कोई समस्या मुँह बाये तैयार रहती है। हाँ, वीडियो गेम के लेवल की तरह कोई समस्या आसानी से निपट जाती है और कोई समस्या कितने ही संसाधन और समय व्यर्थ करवाती है। कुछ बड़ी समस्याएं जटिल होती हैं और सामाजिक परतों में अंदर तक फैली होती हैं। इन समस्याओं में ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपराध, भेदभाव, बाल शोषण, अशिक्षा, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण आदि शामिल हैं। बचपन से इन समस्याओं के बारे में पढ़ाया जाता है और हर रोज़ इनसे जुड़े पहलुओं पर दुनियाभर में ख़बरें, वार्ता होती रहती हैं। एक समय बाद समाज इन समस्याओं का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि अगर कोई बड़ी खबर ना हो तो इनकी तरफ ध्यान नहीं जाता। ये बातें सामने होकर भी अनदेखी सी होने लगती हैं। सरकार और लोगो की जागरूकता से स्थिति बेहतर हो सकती है पर पूरी तरह ठीक होना असंभव है। वहीं दूसरी तरफ कुछ मुद्दे छोटे स्तर, छोटे क्षेत्र-लोगों और कम समय वाले होते हैं। 

कुछ नये को सामान्य से बहुत अधिक प्रतिक्रिया मिलती है इसलिए आम जनता और सभी तरह का मीडिया 1 दिन, 2 दिन या कुछ हफ़्तों तक उस खबर को प्राथमिकता से देखते-दिखाते हैं। इसी क्रम में कभी-कभार किसी घटना पर जनता के बड़े हिस्से की नकारात्मक प्रतिक्रिया आती है और देश-दुनियाभर में प्रदर्शन, मांगें, विरोध और यहाँ तक की हिंसा भी हो जाती है। किसी के लिए छोटी सी बात किसी अन्य समूह के लिए उनकी पहचान पर सवाल या अपमान की तरह देखी जाती है। अगर ध्यान दें तो ये "छोटी" बातें उन बड़े मुद्दों का ही वेरिएशन होती हैं जो हम अनदेखा कर देते हैं। ये कुछ ऐसा है जैसे किसी फिल्म की थीम प्रेम कहानी, एक्शन, एनिमेशन या यात्रा वृतांत हो सकती है पर दर्शक उस फिल्म को इन थीम के वेरिएशन के लिए देखने जाते हैं यानी इस प्रेम कहानी में क्या नया हुआ, नयी कलाकार मण्डली कैसे साथ आयी। नयी चीज़ का "नॉवल्टी" होना कुछ समय के लिए जिज्ञासा जगाता है और जब लोग बात से ऊब जाते हैं तो उसकी जगह ताज़ी बातें ले लेती हैं। 

ऊपर समझाया गया संदर्भ बिना जाने, एक बात लोग अक्सर कहते हैं कि देश में जघन्य अपराध, ग़रीबी जैसे मुद्दों पर तो कुछ नहीं होता! उनपर किसी को कोई धरना, विरोध प्रदर्शन आदि नहीं करते नहीं देखा...पर देखो इन नासमझ लोगों को जो छोटी बात या ज़रा से स्थानीय मुद्दे पर तिल का ताड़ बना रहे हैं। पहली बात, बिना उस पक्ष की पूरी बात जाने एकतरफा नरेटिव पर कभी प्रतिक्रिया ना दें। मानव के सामने चुनौती रहे हज़ारों-लाखों वर्षों वाले मुद्दों की तुलना 4-6 दिन की अस्थाई बात से ना करें। ये एक दुखद सच्चाई है कि अन्याय, बुराई कम किये जा सकते हैं पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकते। कितनी आसानी से कह दिया "कोई कुछ नहीं करता!" जिन बड़ी समस्याओं की आप बात कर रहे हैं देश-दुनिया में अनगिनत स्कूलों, विश्वविद्यालयों में उनपर अलग से सर्टिफिकेट, डिग्री पाठ्यक्रम तक पढ़ाये जाते हैं। रोज़ जगह-जगह हज़ारों जागरूकता एवम मदद प्रोग्राम, सेमिनार, कैंपेन आयोजित किये जाते हैं। कितने ही सरकारी विभाग, निजी संस्थाएं उन समस्याओं पर अनुसंधान और उनके निवारण (उन्हें कम करना बेहतर शब्द होगा) के लिए मौजूद हैं। हाँ, मैं मानता हूँ कि लोगों को और अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है, साथ ही विभागों, संस्थाओं की कार्यप्रणाली और कार्यान्वयन को बेहतर किया जा सकता है पर ऐसी फ़िल्मी डायलॉगबाज़ी से बचें कि कोई कुछ नहीं करता। कोई नहीं बल्कि करोड़ों लोग करते हैं इसलिए सामान्य बात नज़रों में आते हुए भी बच जाती है। वो करोड़ों लोग इस सामान्य से काम को करना छोड़ दें तो दुनिया की बैंड बज जायेगी। इस वजह से जेनेरिक (व्यापक) समस्याओं को स्पेसिफिक (छोटी पर नयापन लिए अलग) घटनाओं के बराबर रखना जायज़ नहीं है। समाज सेवा के अनेकों अवसर ठीक आपके सामने होंगे, कोसने के अलावा उन अवसरों को चुनने की हिम्मत भी रखें। 

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#ज़हन 

पहचान की कमान (लेख)


अपनी पहचान पर दाग ना पड़े इसके लिए लोग क्या कुछ नहीं करते! अब सोचें कितने ही देश, विचारधारा, धर्म, प्रदेश बहुत विस्तृत और स्वयं में एक संसार समेटे हुए हैं वो क्या-क्या करते होंगे? चेहरा बचाने की कुछ कोशिशें और थोड़ी बहुत सेंसरशिप झेली जा सकती है। समस्या तब आती है जब एक पहचान से जुड़े लोगों को बचपन से सिखाया जाये कि उनकी पहचान कभी ग़लत हो ही नहीं सकती और वो दुनिया में सबसे बेहतर हैं। इस सोच को मन में बैठाने के लिए हास्यास्पद कहानियां, स्टंट से लेकर किसी भी विरोधाभासी आवाज़ का दमन करना अब आम बात है। आपके जीने का तरीका आपको सर्वश्रेष्ठ इसलिए लगता है क्योंकि आप उसके अभ्यस्त हो चुके हैं ना कि वो वाकई सर्वश्रेष्ठ है। हाँ, अगर मान लें जीने के तरीके में 50 बातें हों तो संभव है आपके कुछ घटक बेहतर हों पर ये मानना की 50 में से 50 ही सही हैं तो आपको बाकी दुनिया के तौर तरीके देखने की आवश्यकता है। 

विचारधारा को ज़बरदस्ती बेहतर दिखाना कुछ ऐसा लगता है जैसे कोई 50-55 वर्षीय महिला या पुरुष मेकअप, सर्जरी आदि जतन से 25 की लगने की कोशिश करें। इस तरह वो अपने मन को दिलासा तो दे देते हैं क्योंकि उन्होंने पैसा खर्च किया है और बदलाव देखा है। वहीं उनसे अनजान व्यक्ति उन्हें 25 वर्ष का नहीं बतायेगा। अपनी सोच अनुसार कोई 40 वर्ष बोल देगा तो कोई 45 वर्ष। क्या मिला? संसार की सहमति की लीज़ बढ़ गयी कुछ और वर्षों के लिए....बस? सच्चाई तो सात-आठ सालों में फ़िर मुँह उठा लेगी। कमियों को छुपाने से वो फफूंद की तरह बढ़ती हैं क्योंकि मन को झूठा दिलासा रहता है कि कमी तो है ही नहीं तो इलाज कैसा? जबकि कमी को मानकर एक तरह से हम खामियों को अपना लेते हैं। अपनायी हुई कमियां आँखों के सामने रहती हैं जिस से उनके इलाज की सम्भावना अधिक हो जाती है। इसका मतलब ये नहीं कि अबतक जिया जीवन कमतर था बल्कि जो पहचान थी वो अब और बेहतर हो गयी। गलतियां मानना वो भी बड़ी विचारधारा, देश आदि के लिए काफी हिम्मत की बात है और दुर्भाग्य से ऐसी हिम्मत ना के बराबर देखने को मिलती हैं। सीखी हुई मान्यताओं के लिए संघर्ष करना अच्छा है पर कभी-कभी मान्यताओं से आंतरिक संघर्ष और भी अच्छी बात है। एवोल्यूशन केवल प्रकृति के भरोसे ना छोड़ें क्योंकि संभव है आगे बदले समीकरण, प्रकृति आपके लिए कोई विकल्प ना छोड़ें। 
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Art - Caroline B.

Friday, December 8, 2017

Ishq Baklol (Hindi Novel) Review


"इश्क़ बकलोल", नाम पढ़कर आपको लगा होगा कि खुद में एक बड़ा बाज़ार बन चुकी फूहड़ता का फायदा उठाने को एक पुस्तक और लिख दी गयी। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। किसी रोलरकॉस्टर राइड सी भारतीय परिवेश में भावनाओं की गुत्थमगुत्था है इश्क़ बकलोल। 2012 में देवेन पाण्डेय जी ने अपने अनुभवों, इनके साथ घटी बातों पर लिखना शुरू किया तब लगा कि कई शौकिया लेखकों की तरह ये कुछ समय बाद लेखन को टाटा कर देंगे। नौकरी, पारिवारिक ज़िम्मेदारियां संभालते हुए इन्होने लेखन जारी रखा और कम समय में काफी सुधार किया। एक दिन इनका मैसेज आया कि इन्होने एक उपन्यास लिखा है और मैं उपन्यास की इंट्रो पोएम लिखूं। उपन्यास का संक्षिप्त आईडिया जो सुना उसके अनुसार एक नज़्म भेज दी। सूरज पॉकेट बुक्स के सौजन्य से इश्क़ बकलोल अब बाजार में उपलब्ध है, जिसकी अच्छी बिक्री हो रही है। 

कवर पेज इंटरनेट से किसी स्टॉक तस्वीर को ना लेकर आकर्षक चित्रांकन रखा गया। सूरज पॉकेट बुक्स की ये पहल मुझे बढ़िया लगी। कहानी के विस्तार में ना जाकर इतना कहूँगा कि इसे रोमांटिक के बजाय एक सामाजिक उपन्यास कहना उचित होगा। भारतीय समाज के अंदर बसी विविधता को बड़ी सुंदरता से दर्शाया है। जीवन की घटनाओं - दुर्घटनाओं के बीच किस तरह हम बिना सोचे कितना कुछ कर जाते हैं (या असमंजस में कुछ नहीं करते) जिनके दूरगामी परिणाम जीवन की दिशा बदल देते हैं। कहानी के दौरान पात्रों की प्रवृत्ति -नज़रिये में आये बदलाव अच्छे लगे। अक्सर ज़बरदस्ती करैक्टर आर्क दिखाने के चक्कर में घटक जोड़ दिए जाते हैं वो यहाँ नहीं हुआ। मनोरंजन की दुनिया में मार्केटिंग जुमला बन चुके फ़र्जी देसीपन की जगह यहाँ किरदारों में असली देसीपन पढ़ने को मिला। कुछ जगह भाषा शैली, कथा के प्रवाह और दृश्य परिवर्तन में सुधार की सम्भावना है, जिसे पहले प्रयास के हिसाब से अनदेखा किया जा सकता है। ये देवेन जी का स्नेह है कि कहानी में एक किरदार मेरा भी है। मुझे पता चला कि मेरा किरदार बड़ा था पर कहानी के लिए उसे छोटा करना पड़ा (इस कारण रेटिंग में आधा अंक काट लेता हूँ....हाहा)। आशा है आगामी उपन्यास और भी धमाकेदार हो। शुभकामनाएं!

उपन्यास के संसार में देवेन पाण्डेय के पदार्पण को मैं रेट करता हूँ - 7.5/10

P.S. मुझे नहीं पता कि मैं रात के डेढ़ बजे अपनी रसोई में धूप का चश्मा लगाकर सेल्फी क्यों ले रहा हूँ।

Monday, December 4, 2017

Eternally ill (Genre - Romance)


"Eternally ill", free short comic script for artists, writers and comic fans in simple language (English and Hindi). Genre: Romance, Hindi title - "रेडियोधर्मी प्रेम कहानी"
Read Online or Download - Google BooksIssuuSlideshareScribdMediafire4Shared (also available - Drive, PDF Archives, Ebook360 etc)
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Bonus Poetry :)

बता तो सही...

बता इस कहानी को क्या मोड़ दूँ?
तेरा हाथ पकड़ूँ या दुनिया छोड़ दूँ...
बता इस रवानी का क्या नाम रखूँ?
टीस बनने दूँ या आज़ाद छोड़ दूँ...
बता इस दीवानी से क्या काम लूँ?
पर्दा कर दूँ या तख्ता पलट दूँ...
...या रहने दे! ज़रुरत पर पूछ लूँगी,
मैं तो तेरे साथ ही हूँ,
हर पल, हर-सू... 

#ज़हन
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