ज़रा सोचिये कोई नयी सरकार जब सत्ता पर काबिज़ हो तो पहले वो जनहित प्राथमिकता के हिसाब से फैसले लेगी की ग्राम पंचायतों और ब्लॉक्स के साथ मिलकर बुनियादी ढांचे का विकास, रुकी हुई योजनाओं का क्रियान्वयन, जो वायदे किये थे सत्ता मे आने से पहले किये थे उनमे से कुछ की कम से कम दिखाने भर के लिए शुरुआत।
अब कर्नाटक मे जो नयी सरकार आयी उसके सबसे पहले फैसलों मे से एक था गाय काटने वाले रुके हुए क़त्लखानों को दोबारा खुलवाना। धार्मिक बात तो चलिए बाद मे पर एक तार्किक बात सोचिये, सत्ता परिवर्तन के बाद सरकार को इतने फैसले लेने होते है, उनमे से ये फैसला सेकुलर होने की आड़ मे अगर 4-5 महीने बाद आता तो समझ आता पर बदलते ही शुरुआती फैसलों मे से एक ये ......वाह! क्या ये जनता की जिंदगी और मौत का सवाल था जो इसको इतनी प्राथमिकता दी गयी बाकी सभी मुद्दों से।
इस से पहले सरकार मे भी तो जनता अपना जीवन यापन यथास्थिति मे कर रही थी, तो अब क्या हुआ? क्या यह किसी तरह का बदला लिया गया?
Important Issue -
"आखिरकार लंबे इंतजार के बाद केंद्र ने कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले की अधिसूचना जारी कर दी।
इस पर जहां तमिलनाडु में खुशी जाहिर की जा रही है, कर्नाटक में विरोध शुरू हो गया है। करीब पंद्रह दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को फटकार लगाई थी कि वह इस फैसले की अधिसूचना जारी करने में देर क्यों कर रही है। तब तमिलनाडु और कर्नाटक सरकार के मुख्य सचिवों ने अदालत के सामने कहा था कि न्यायाधिकरण के फैसले की अधिसूचना जारी करने पर उन्हें आपत्ति नहीं है। मगर बाद में कर्नाटक ने केंद्र सरकार से कहा कि जब तक राज्य सरकार की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में दायर अपील पर फैसला नहीं आ जाता, अधिसूचना जारी न की जाए। वही बात कर्नाटक अब भी दोहरा रहा है कि फैसला आने तक कावेरी प्रबंधन बोर्ड का गठन न किया जाए। जाहिर है, कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण की अधिसूचना जारी होने से इस नदी के पानी को लेकर समय-समय पर उठ खड़े होते विवाद का कानूनी और तकनीकी हल तो निकल आया है, मगर इस पर अमल कराना अब भी आसान नहीं होगा। कर्नाटक कभी सहज ढंग से तमिलनाडु के हिस्से का पानी छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। तमिलनाडु बार-बार सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाता और उसके निर्देश के मुताबिक ही कर्नाटक कुछ समय के लिए पानी छोड़ता रहा है। इस विवाद को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कावेरी नदी प्राधिकरण और कावेरी निगरानी समिति का गठन किया गया था। मगर तमिलनाडु के अड़ियल रवैए के चलते इस मसले का निपटारा नहीं हो पाया। दरअसल, कावेरी जल बंटवारे का मुद्दा तमिलनाडु और कर्नाटक में बहुत पहले से राजनीतिक रंग ले चुका है।
कई बार यह काफी तूल पकड़ लेता है। दोनों तरफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो जाता है। इन राज्यों में चाहे जिन दलों की सरकारें रही हों, कोई व्यावहारिक उपाय तलाशने के बजाय, उन्हें अपने राजनीतिक लाभ की चिंता अधिक सताती रही है। कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण का फैसला अधिसूचित होने के नब्बे दिनों के भीतर कावेरी प्रबंधन बोर्ड और कावेरी जल नियामक समिति का गठन हो जाएगा। इनमें संबंधित राज्यों के प्रतिनिधि और विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल होंगे। मगर अब तक के अनुभवों को देखते हुए कर्नाटक इसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। दरअसल, अभी तक वह कावेरी का सारा पानी इस्तेमाल करता रहा है। न्यायाधिकरण के फैसले के मुताबिक उसे तमिलनाडु के लिए चार सौ उन्नीस टीएमसी और पुदुचेरी के लिए तीस टीएमसी पानी छोड़ना पड़ेगा। इस तरह उसे सिर्फ दो सौ सत्तर टीएमसी पानी मिल पाएगा। जाहिर है, उसके सामने परेशानियां बढ़ जाएंगी और किसी न किसी बहाने वह अदालत की शरण में जाने की कोशिश करेगा। हालांकि वह अपनी सिंचाई और पेयजल संबंधी योजनाओं को नए सिरे से व्यवस्थित करे तो इस समस्या से काफी हद तक पार पाया जा सकता है। दरअसल, यह समस्या उन सभी राज्यों में है जहां कोई नदी एक से अधिक राज्यों से होकर बहती है। जिस राज्य से नदी पहले गुजरती है, वह उसका पानी रोक लेता है। इन विवादों के मद्देनजर नदी जोड़ योजना की रूपरेखा तैयार की गई थी, मगर कुछ अड़चनों के चलते वह आगे नहीं बढ़ पाई। कावेरी जल बंटवारे से जुड़े विवाद पर भले अब कुछ विराम लग जाए, मगर दूसरे राज्यों में अब भी सिंचाई और पेयजल आपूर्ति संबंधी योजनाओं को सुचारु बनाने के लिए व्यावहारिक नीति की दरकार है।"
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