**** चपल चीन, चप्पल भारत ****
यह शीर्षक इसलिए सोचा की भारतीय व्यवस्था मे कई दमदार योजनाएँ पूरी होते होते अपना अर्थ और दिशा ही खो देतीं है।
चीन के बारे में एक और रोचक बात आप सबके साथ बाँट रहा हूँ। अंतरराष्ट्रीय व्यापार डील्स, प्राकर्तिक सम्पदाओं जैसे तेल के कुओं, समुद्र क्षेत्र आदि का अधिग्रहण जब कोई देश करवाता है तो ऐसे व्यापारिक मामलो में कई देश हिस्सा लेते है और राजनैतिक संबंधो, भौतिक, पैसो, प्लान, कोटेशन आदि मे जो देश आगे रहता है या जिस देश की कंपनी आगे रहती है उसको डील या व्यापर कॉन्ट्रैक्ट मिल जाता है। बस यहीं चीन ने एक नयी कूटनीति अपनाई है जैसे तेल, प्राकर्तिक गैस भण्डारो की डील मे उसकी 8 तेल कंपनियाँ एक साथ मिलकर कोटेशन और बाकी जुड़ा काम करती है एक बैनर तले जिसकी वजह से दूसरे देशो की बड़ी कम्पनियाँ भी उन आठ संयुक्त कंपनियों के सामने बौनी दिखाई पड़ती है। भारत की निजी और सरकारी कंपनियां राष्ट्रीय सम्पदा आवंटन नेल्प योजना पर ही साथ नहीं आ पायीं अब तक वो विदेशो मे ऐसे एकजुट हो पाएंगी ये मुश्किल लग रहा है निकट भविष्य मे।
जैसे अब कुछ समय से अफ्रीका की प्राकर्तिक सम्पदा पर चीन की नज़र है और वो तेज़ी से लम्बे समय के कॉन्ट्रैक्ट्स, डील्स और अधिग्रहण करके अपना रास्ता साफ़ कर रहा है। वहां की सरकार का लोगो और विदेशो को दिखाने भर के लिए सामाजिक रवैया है, न की भारत जैसा लोकतांत्रिक। वैसे लोकतन्त्र एक अच्छी व्यवस्था होती है पर भारतिय राजनेताओ एवम अफसरों की धीमी, डरी सी, ढुल-मुल शैली पर ये जमती नहीं उल्टा उन्हें और आलसी बना देती है।
जब तक इनका बिल पारित होता है, नीतियाँ बनती है, कमेटियाँ बैठती है और बाकी चोचला चलता है तब तक चीन टारगेट क्षेत्रो मे काम शुरू कर भारत की व्यापारिक उम्मीद ही ख़त्म कर देता है। कमी सोचने वालो और उनकी नीतियों मे नहीं है .....कमी करने वालो के संचालन और नीतियों के कार्यान्वयन में है।
- Mohit Sharma Trendster
यह शीर्षक इसलिए सोचा की भारतीय व्यवस्था मे कई दमदार योजनाएँ पूरी होते होते अपना अर्थ और दिशा ही खो देतीं है।
चीन के बारे में एक और रोचक बात आप सबके साथ बाँट रहा हूँ। अंतरराष्ट्रीय व्यापार डील्स, प्राकर्तिक सम्पदाओं जैसे तेल के कुओं, समुद्र क्षेत्र आदि का अधिग्रहण जब कोई देश करवाता है तो ऐसे व्यापारिक मामलो में कई देश हिस्सा लेते है और राजनैतिक संबंधो, भौतिक, पैसो, प्लान, कोटेशन आदि मे जो देश आगे रहता है या जिस देश की कंपनी आगे रहती है उसको डील या व्यापर कॉन्ट्रैक्ट मिल जाता है। बस यहीं चीन ने एक नयी कूटनीति अपनाई है जैसे तेल, प्राकर्तिक गैस भण्डारो की डील मे उसकी 8 तेल कंपनियाँ एक साथ मिलकर कोटेशन और बाकी जुड़ा काम करती है एक बैनर तले जिसकी वजह से दूसरे देशो की बड़ी कम्पनियाँ भी उन आठ संयुक्त कंपनियों के सामने बौनी दिखाई पड़ती है। भारत की निजी और सरकारी कंपनियां राष्ट्रीय सम्पदा आवंटन नेल्प योजना पर ही साथ नहीं आ पायीं अब तक वो विदेशो मे ऐसे एकजुट हो पाएंगी ये मुश्किल लग रहा है निकट भविष्य मे।
जैसे अब कुछ समय से अफ्रीका की प्राकर्तिक सम्पदा पर चीन की नज़र है और वो तेज़ी से लम्बे समय के कॉन्ट्रैक्ट्स, डील्स और अधिग्रहण करके अपना रास्ता साफ़ कर रहा है। वहां की सरकार का लोगो और विदेशो को दिखाने भर के लिए सामाजिक रवैया है, न की भारत जैसा लोकतांत्रिक। वैसे लोकतन्त्र एक अच्छी व्यवस्था होती है पर भारतिय राजनेताओ एवम अफसरों की धीमी, डरी सी, ढुल-मुल शैली पर ये जमती नहीं उल्टा उन्हें और आलसी बना देती है।
जब तक इनका बिल पारित होता है, नीतियाँ बनती है, कमेटियाँ बैठती है और बाकी चोचला चलता है तब तक चीन टारगेट क्षेत्रो मे काम शुरू कर भारत की व्यापारिक उम्मीद ही ख़त्म कर देता है। कमी सोचने वालो और उनकी नीतियों मे नहीं है .....कमी करने वालो के संचालन और नीतियों के कार्यान्वयन में है।
- Mohit Sharma Trendster
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