अंतरजाल की दुनिया और जीवन में मोहित शर्मा 'ज़हन' के बिखरे रत्नों में से कुछ...

Monday, December 25, 2017

विचारों पर विचार...


कहानी लिखते समय कभी-कभी एक दुविधा का सामना करना पड़ता है। एक विचार को आधार बनाकर एक कहानी (या लेख) गढ़ी गयी। उस विचार से बहुत से अन्य बातें, विचार, उदाहरण और निष्कर्ष जुड़े होते हैं। अब लेखक के पास दो विकल्प हैं या तो केवल उस मूल विचार को उभार कर कहानी लिख दे या फिर उस विचार के साथ बढ़ती बातों को उस कहानी में शामिल करे। विचार को मुख्य आकर्षण की तरह प्रस्तुत करने में ये संशय नहीं रहता कि पाठक का ध्यान उस विचार पर नहीं जाएगा। साथ ही पाठक को कुछ नयेपन का अनुभव होता है। इसका मतलब ये नहीं कि मूल विचार से अलग कुछ लिखा ही ना जाए। ये कुछ वैसा ही है जैसे दवाओं या रसायनों को जलमिश्रित (डायल्यूट) कर उनका सही अनुपात बनाया जाता है। विचार को घटनाओं एवम किरदारों से इतना डायल्यूट किया जाए कि उसका प्रभाव बना रहे और वो अधपका ना लगे। 

कथा में पूरा ध्यान आईडिया पर होने का एक घाटा यह है कि पाठक को उस रचना में अधूरापन लग सकता है। उन्हें प्रभावी विचार वाली कहानी पढ़कर ये लग सकता है कि इस कहानी में और बहुत कुछ होना चाहिए था। कहानी की घटनाएं और पात्र एक औपचारिकता से लग सकते हैं। वहीं अधिक डायल्यूट होने पर घटनाओं, किरदारों की अन्य बातों में विचार कहीं घुल सा जाता है। कभी-कभार तो पाठक का रडार विचार को पकड़ ही नहीं पाता। कुछ अपवाद में ऐसा इच्छित हो सकता है पर अधिकतर कहानी को 'कहानी' बनाने में उसका आधार गुम हो जाता है। 

विचारों से कथा या लेख बनाने के इन प्रयोगों में कभी मैं आईडिया को प्राथमिकता देता हूँ तो कभी अन्य घटकों से मिश्रित कहानी को लिखता हूँ। स्थिति अनुसार दोनों तरीके आज़माते रहना चाहिए। अगर किसी विचार में काफी सम्भावना दिखे तो उसपर दोनों तरीकों से लिखना चाहिए। वैसे एक बार किसी विचार पर कुछ लिखने के बाद तुरंत ही दोबारा (चाहे अलग तरीके से सही) उसपर लिखने का मन नहीं करता...अगर ऐसा कुछ है, तो भी उस आईडिया को आगे के लिए बचा कर रख लें। बाद में कभी जब मन करे तब अन्य तरीके से लिखने का प्रयास करें।
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Art - Anastasia Glushkova
#ज़हन

Monday, December 18, 2017

Upcoming Anthology


#update Completed a short comic script "Saadhe 4 Feet" for Ghosts of India Anthology Project (Comic Theory) :) #mohitness #comictheory #art 

Artwork by Harendra Saini on my story...



Comics Theory founder Mr. SNath Mahto presented artworks (by artist Harendra Saini on my script) in 8th Comic Fan Fest, 17 December 2017

Tuesday, December 12, 2017

सामाजिक समस्याओं में अंतर (लेख)

Art - Mari Bobghiashvili‎
समस्या जीवन का अभिन्न अंग है। कुछ पाना है, कुछ करना है...सांस तक लेते रहना है तो भी कोई ना कोई समस्या मुँह बाये तैयार रहती है। हाँ, वीडियो गेम के लेवल की तरह कोई समस्या आसानी से निपट जाती है और कोई समस्या कितने ही संसाधन और समय व्यर्थ करवाती है। कुछ बड़ी समस्याएं जटिल होती हैं और सामाजिक परतों में अंदर तक फैली होती हैं। इन समस्याओं में ग़रीबी, बेरोज़गारी, अपराध, भेदभाव, बाल शोषण, अशिक्षा, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण आदि शामिल हैं। बचपन से इन समस्याओं के बारे में पढ़ाया जाता है और हर रोज़ इनसे जुड़े पहलुओं पर दुनियाभर में ख़बरें, वार्ता होती रहती हैं। एक समय बाद समाज इन समस्याओं का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि अगर कोई बड़ी खबर ना हो तो इनकी तरफ ध्यान नहीं जाता। ये बातें सामने होकर भी अनदेखी सी होने लगती हैं। सरकार और लोगो की जागरूकता से स्थिति बेहतर हो सकती है पर पूरी तरह ठीक होना असंभव है। वहीं दूसरी तरफ कुछ मुद्दे छोटे स्तर, छोटे क्षेत्र-लोगों और कम समय वाले होते हैं। 

कुछ नये को सामान्य से बहुत अधिक प्रतिक्रिया मिलती है इसलिए आम जनता और सभी तरह का मीडिया 1 दिन, 2 दिन या कुछ हफ़्तों तक उस खबर को प्राथमिकता से देखते-दिखाते हैं। इसी क्रम में कभी-कभार किसी घटना पर जनता के बड़े हिस्से की नकारात्मक प्रतिक्रिया आती है और देश-दुनियाभर में प्रदर्शन, मांगें, विरोध और यहाँ तक की हिंसा भी हो जाती है। किसी के लिए छोटी सी बात किसी अन्य समूह के लिए उनकी पहचान पर सवाल या अपमान की तरह देखी जाती है। अगर ध्यान दें तो ये "छोटी" बातें उन बड़े मुद्दों का ही वेरिएशन होती हैं जो हम अनदेखा कर देते हैं। ये कुछ ऐसा है जैसे किसी फिल्म की थीम प्रेम कहानी, एक्शन, एनिमेशन या यात्रा वृतांत हो सकती है पर दर्शक उस फिल्म को इन थीम के वेरिएशन के लिए देखने जाते हैं यानी इस प्रेम कहानी में क्या नया हुआ, नयी कलाकार मण्डली कैसे साथ आयी। नयी चीज़ का "नॉवल्टी" होना कुछ समय के लिए जिज्ञासा जगाता है और जब लोग बात से ऊब जाते हैं तो उसकी जगह ताज़ी बातें ले लेती हैं। 

ऊपर समझाया गया संदर्भ बिना जाने, एक बात लोग अक्सर कहते हैं कि देश में जघन्य अपराध, ग़रीबी जैसे मुद्दों पर तो कुछ नहीं होता! उनपर किसी को कोई धरना, विरोध प्रदर्शन आदि नहीं करते नहीं देखा...पर देखो इन नासमझ लोगों को जो छोटी बात या ज़रा से स्थानीय मुद्दे पर तिल का ताड़ बना रहे हैं। पहली बात, बिना उस पक्ष की पूरी बात जाने एकतरफा नरेटिव पर कभी प्रतिक्रिया ना दें। मानव के सामने चुनौती रहे हज़ारों-लाखों वर्षों वाले मुद्दों की तुलना 4-6 दिन की अस्थाई बात से ना करें। ये एक दुखद सच्चाई है कि अन्याय, बुराई कम किये जा सकते हैं पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकते। कितनी आसानी से कह दिया "कोई कुछ नहीं करता!" जिन बड़ी समस्याओं की आप बात कर रहे हैं देश-दुनिया में अनगिनत स्कूलों, विश्वविद्यालयों में उनपर अलग से सर्टिफिकेट, डिग्री पाठ्यक्रम तक पढ़ाये जाते हैं। रोज़ जगह-जगह हज़ारों जागरूकता एवम मदद प्रोग्राम, सेमिनार, कैंपेन आयोजित किये जाते हैं। कितने ही सरकारी विभाग, निजी संस्थाएं उन समस्याओं पर अनुसंधान और उनके निवारण (उन्हें कम करना बेहतर शब्द होगा) के लिए मौजूद हैं। हाँ, मैं मानता हूँ कि लोगों को और अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है, साथ ही विभागों, संस्थाओं की कार्यप्रणाली और कार्यान्वयन को बेहतर किया जा सकता है पर ऐसी फ़िल्मी डायलॉगबाज़ी से बचें कि कोई कुछ नहीं करता। कोई नहीं बल्कि करोड़ों लोग करते हैं इसलिए सामान्य बात नज़रों में आते हुए भी बच जाती है। वो करोड़ों लोग इस सामान्य से काम को करना छोड़ दें तो दुनिया की बैंड बज जायेगी। इस वजह से जेनेरिक (व्यापक) समस्याओं को स्पेसिफिक (छोटी पर नयापन लिए अलग) घटनाओं के बराबर रखना जायज़ नहीं है। समाज सेवा के अनेकों अवसर ठीक आपके सामने होंगे, कोसने के अलावा उन अवसरों को चुनने की हिम्मत भी रखें। 

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#ज़हन 

पहचान की कमान (लेख)


अपनी पहचान पर दाग ना पड़े इसके लिए लोग क्या कुछ नहीं करते! अब सोचें कितने ही देश, विचारधारा, धर्म, प्रदेश बहुत विस्तृत और स्वयं में एक संसार समेटे हुए हैं वो क्या-क्या करते होंगे? चेहरा बचाने की कुछ कोशिशें और थोड़ी बहुत सेंसरशिप झेली जा सकती है। समस्या तब आती है जब एक पहचान से जुड़े लोगों को बचपन से सिखाया जाये कि उनकी पहचान कभी ग़लत हो ही नहीं सकती और वो दुनिया में सबसे बेहतर हैं। इस सोच को मन में बैठाने के लिए हास्यास्पद कहानियां, स्टंट से लेकर किसी भी विरोधाभासी आवाज़ का दमन करना अब आम बात है। आपके जीने का तरीका आपको सर्वश्रेष्ठ इसलिए लगता है क्योंकि आप उसके अभ्यस्त हो चुके हैं ना कि वो वाकई सर्वश्रेष्ठ है। हाँ, अगर मान लें जीने के तरीके में 50 बातें हों तो संभव है आपके कुछ घटक बेहतर हों पर ये मानना की 50 में से 50 ही सही हैं तो आपको बाकी दुनिया के तौर तरीके देखने की आवश्यकता है। 

विचारधारा को ज़बरदस्ती बेहतर दिखाना कुछ ऐसा लगता है जैसे कोई 50-55 वर्षीय महिला या पुरुष मेकअप, सर्जरी आदि जतन से 25 की लगने की कोशिश करें। इस तरह वो अपने मन को दिलासा तो दे देते हैं क्योंकि उन्होंने पैसा खर्च किया है और बदलाव देखा है। वहीं उनसे अनजान व्यक्ति उन्हें 25 वर्ष का नहीं बतायेगा। अपनी सोच अनुसार कोई 40 वर्ष बोल देगा तो कोई 45 वर्ष। क्या मिला? संसार की सहमति की लीज़ बढ़ गयी कुछ और वर्षों के लिए....बस? सच्चाई तो सात-आठ सालों में फ़िर मुँह उठा लेगी। कमियों को छुपाने से वो फफूंद की तरह बढ़ती हैं क्योंकि मन को झूठा दिलासा रहता है कि कमी तो है ही नहीं तो इलाज कैसा? जबकि कमी को मानकर एक तरह से हम खामियों को अपना लेते हैं। अपनायी हुई कमियां आँखों के सामने रहती हैं जिस से उनके इलाज की सम्भावना अधिक हो जाती है। इसका मतलब ये नहीं कि अबतक जिया जीवन कमतर था बल्कि जो पहचान थी वो अब और बेहतर हो गयी। गलतियां मानना वो भी बड़ी विचारधारा, देश आदि के लिए काफी हिम्मत की बात है और दुर्भाग्य से ऐसी हिम्मत ना के बराबर देखने को मिलती हैं। सीखी हुई मान्यताओं के लिए संघर्ष करना अच्छा है पर कभी-कभी मान्यताओं से आंतरिक संघर्ष और भी अच्छी बात है। एवोल्यूशन केवल प्रकृति के भरोसे ना छोड़ें क्योंकि संभव है आगे बदले समीकरण, प्रकृति आपके लिए कोई विकल्प ना छोड़ें। 
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Art - Caroline B.

Friday, December 8, 2017

Ishq Baklol (Hindi Novel) Review


"इश्क़ बकलोल", नाम पढ़कर आपको लगा होगा कि खुद में एक बड़ा बाज़ार बन चुकी फूहड़ता का फायदा उठाने को एक पुस्तक और लिख दी गयी। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। किसी रोलरकॉस्टर राइड सी भारतीय परिवेश में भावनाओं की गुत्थमगुत्था है इश्क़ बकलोल। 2012 में देवेन पाण्डेय जी ने अपने अनुभवों, इनके साथ घटी बातों पर लिखना शुरू किया तब लगा कि कई शौकिया लेखकों की तरह ये कुछ समय बाद लेखन को टाटा कर देंगे। नौकरी, पारिवारिक ज़िम्मेदारियां संभालते हुए इन्होने लेखन जारी रखा और कम समय में काफी सुधार किया। एक दिन इनका मैसेज आया कि इन्होने एक उपन्यास लिखा है और मैं उपन्यास की इंट्रो पोएम लिखूं। उपन्यास का संक्षिप्त आईडिया जो सुना उसके अनुसार एक नज़्म भेज दी। सूरज पॉकेट बुक्स के सौजन्य से इश्क़ बकलोल अब बाजार में उपलब्ध है, जिसकी अच्छी बिक्री हो रही है। 

कवर पेज इंटरनेट से किसी स्टॉक तस्वीर को ना लेकर आकर्षक चित्रांकन रखा गया। सूरज पॉकेट बुक्स की ये पहल मुझे बढ़िया लगी। कहानी के विस्तार में ना जाकर इतना कहूँगा कि इसे रोमांटिक के बजाय एक सामाजिक उपन्यास कहना उचित होगा। भारतीय समाज के अंदर बसी विविधता को बड़ी सुंदरता से दर्शाया है। जीवन की घटनाओं - दुर्घटनाओं के बीच किस तरह हम बिना सोचे कितना कुछ कर जाते हैं (या असमंजस में कुछ नहीं करते) जिनके दूरगामी परिणाम जीवन की दिशा बदल देते हैं। कहानी के दौरान पात्रों की प्रवृत्ति -नज़रिये में आये बदलाव अच्छे लगे। अक्सर ज़बरदस्ती करैक्टर आर्क दिखाने के चक्कर में घटक जोड़ दिए जाते हैं वो यहाँ नहीं हुआ। मनोरंजन की दुनिया में मार्केटिंग जुमला बन चुके फ़र्जी देसीपन की जगह यहाँ किरदारों में असली देसीपन पढ़ने को मिला। कुछ जगह भाषा शैली, कथा के प्रवाह और दृश्य परिवर्तन में सुधार की सम्भावना है, जिसे पहले प्रयास के हिसाब से अनदेखा किया जा सकता है। ये देवेन जी का स्नेह है कि कहानी में एक किरदार मेरा भी है। मुझे पता चला कि मेरा किरदार बड़ा था पर कहानी के लिए उसे छोटा करना पड़ा (इस कारण रेटिंग में आधा अंक काट लेता हूँ....हाहा)। आशा है आगामी उपन्यास और भी धमाकेदार हो। शुभकामनाएं!

उपन्यास के संसार में देवेन पाण्डेय के पदार्पण को मैं रेट करता हूँ - 7.5/10

P.S. मुझे नहीं पता कि मैं रात के डेढ़ बजे अपनी रसोई में धूप का चश्मा लगाकर सेल्फी क्यों ले रहा हूँ।

Monday, December 4, 2017

Eternally ill (Genre - Romance)


"Eternally ill", free short comic script for artists, writers and comic fans in simple language (English and Hindi). Genre: Romance, Hindi title - "रेडियोधर्मी प्रेम कहानी"
Read Online or Download - Google BooksIssuuSlideshareScribdMediafire4Shared (also available - Drive, PDF Archives, Ebook360 etc)
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Bonus Poetry :)

बता तो सही...

बता इस कहानी को क्या मोड़ दूँ?
तेरा हाथ पकड़ूँ या दुनिया छोड़ दूँ...
बता इस रवानी का क्या नाम रखूँ?
टीस बनने दूँ या आज़ाद छोड़ दूँ...
बता इस दीवानी से क्या काम लूँ?
पर्दा कर दूँ या तख्ता पलट दूँ...
...या रहने दे! ज़रुरत पर पूछ लूँगी,
मैं तो तेरे साथ ही हूँ,
हर पल, हर-सू... 

#ज़हन
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Wednesday, November 22, 2017

ग्राहक ज़रा बचके (लेख)


सामान, सेवा बेचने वाले व्यापारियों की एक श्रेणी अधिक पैसा कमाने के लिए कई ग़लत तरीके आज़माती है। आज उनमे से एक तरीके पर बात करते हैं। हर व्यक्ति के लिए अपनी पहचान, अहं का कुछ मोल होता है। जैसे अगर आप किसी बड़े होटल में खाना खा रहे हों तो आप अपने घर जैसे इत्मीनान, मौज से नहीं खायेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि आप वहाँ भोजन कर रहे अन्य लोगो के सामने शालीन बने रहने चाहते हैं। हालांकि, उनमे कोई आपको जानता नहीं और शायद आगे कभी जीवन में सामने भी ना आये पर फिर भी असहज ना लगे और इस आधे-एक घंटे अपनी अच्छी छवि बनी रहे इसलिए थोड़ा एडजस्ट करना चलता है। ये जो ईगो-इमेज वाली असहजता है कुछ दुकानदार इसका फायदा उठाते हैं। मान लीजिये आपको एक ख़ास तरह का टूथपेस्ट पसंद है जो आस-पास नहीं मिलता। जब तक आपका उस टूथपेस्ट लेने वाली जगह जाना नहीं होता तब तक काम चलाने के लिए आप कोई और टूथपेस्ट लेने जाते हो। अब वो दुकानदार आपको 150 रुपये का टूथपेस्ट उठाकर दे देता है। आप सोचते हो कि मेरे वाला प्रोडक्ट जल्द लेना ही है तो क्यों ना छोटा, सस्ता टूथपेस्ट ले लूँ। झिझक के साथ आप मना करने को बड़बड़ाते हो तो दुकानदार झूठी हँसी, या तंज भरे स्वर में 'भोला' सवाल करता है कि अन्य ग्राहक, दुकानकर्मियों का ध्यान आप दोनों पर जाता है। 

अब "ज़रा सी बात" पर आपको ताकते लोगो के सामने झेंपकर आप कहते हो कि "लाओ ये ही दे दो!" या फिर आप मन ही मन दुकानदार की ट्रिक समझ उसे कोसते हुए कहीं और से टूथपेस्ट खरीदने निकल जाते हो। अधिकतर पहली स्थिति होती है इसलिए दुकानदार ये रिस्क ले लेता है। थोड़ा वह आपके हावभाव, आदत के अनुसार अपनी बात रखता है। केवल कुछ अधिक बेचने में ही नहीं उत्पाद से सम्बंधित ग्राहक के सवालों को ख़त्म करने के लिए भी "ये बचकाने सवाल हैं" की हँसी या बर्ताव का स्वांग करता है। 

तीसरा और दुर्लभ तरीका है दुकानदार पर पलटवार - "घर में फलाना (काफी महँगे) टूथपेस्ट के बॉक्स पड़े हैं। वो तो ख़ास डीलर पर मिलता है आपके यहाँ होगा नहीं तो सोचा एक बार के इस्तेमाल के लिए फलाना छोटा साइज ले लूँ...टीवी पर इसके बड़े एड देखे हैं। ये बड़ा साइज जो आप दे रहे हो ये तो पड़ा-पड़ा ख़राब होगा! है क्या आपके पास फलाना प्रोडक्ट? (तंज वाली हँसी जोड़ें)" यह बस एक उदाहरण भर है। स्थिति अनुसार ऐसे जवाब देने और व्यापारी को इस तरह फायदा ना देने के लिए हमेशा तैयार रहें। 
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#ज़हन

Monday, November 13, 2017

केस स्टडी: बदलते दौर में ढलता स्टारडम


इंटरनेट (अंतरजाल) जो पहले मिलने-जुलने, कोडिंग, हल्के मनोरंजन और जानकारी का साधन था वो धीरे-धीरे दुनियाभर के कलाकारों के लिए एक अथाह मंच बन गया। हालाँकि, इस मंच में कई कमियाँ हैं पर फिर भी इसका लाभ करोड़ों लोगो को मिला है। आज अंतरजाल की दुनिया से एक रोचक केस अध्ययन। इंटरनेट सर्फ करते हुए श्रद्धा शर्मा के यूट्यूब चैनल पर जाना हुआ। अप्रैल 2011, 15 साल की उम्र में इस लड़की ने बॉलीवुड गानों के कवर यूट्यूब पर डालने शुरू किये जो उस समय भारत में अनसुनी तो नहीं पर एक नयी बात थी। कुछ समय बाद श्रद्धा के गाये चौथे अपलोड "हाल ए दिल" गाने के कवर को कम समय में 10 लाख से अधिक व्यूज़ मिले और रातों-रात श्रद्धा का नाम हो गया। स्थानीय , राष्ट्रीय अखबारों-पत्रिकाओं ने उसपर सुर्खियाँ बनायीं, कई कॉलेज फेस्ट से न्यौते आने लगे। जहाँ उसके प्रशंसकों की कमी नहीं थी वहीं आलोचक भी बढ़ रहे थे। जिनका मत था कि श्रद्धा टैलेंट के बदले नोवेल्टी के कारण चल रही है, नहीं तो लाखों भारतीय गायक-गायिकाएँ जो यूट्यूब पर नहीं हैं या जिन्हे एडिटिंग आदि का ज्ञान नहीं है इस प्रसिद्ध गायिका से कहीं बेहतर हैं। उसके बाद 2013-14 की खबर थी कि श्रद्धा की डेब्यू एल्बम आ रही है जिसका निर्माण और संगीत निर्देशन लेस्ली लुईस कर रहे हैं। 2014 में एल्बम आने के बाद से श्रद्धा शर्मा के कुछ वेब विज्ञापन, कोलैबोरेशन आये पर कोई बड़ी अपडेट नहीं मिली। 

हैरानी की बात यह है कि अब 6-7 वर्ष बाद श्रद्धा के यूट्यूब चैनल के सब्सक्राइबर्स 2 लाख 34 हज़ार हैं यानी शुरुआती बूम के बाद बहुत कम लोग श्रद्धा के चैनल से जुड़े। उस दौर में जो बड़ी बात थी अब हज़ारों भारतीय चैनल्स, तरह-तरह के कलाकारों को श्रद्धा की तुलना में कहीं अधिक प्रशंसक और प्रतिक्रिया मिलती हैं। कभी अग्रिम पंक्ति में खड़ी श्रद्धा कंटेंट क्रिएटर्स की भीड़ में कहीं गुम सी हो गयी। ऐसा क्यों हुआ? इसपर कुछ बातें -

*) - जहाँ इंटरनेट ने सबको मंच दिया वहीं बढ़ती प्रतिभावान भीड़ के साथ प्रतिस्पर्धा का स्तर भी बढ़ गया है। जो बातें आज से कुछ वर्ष पहले चल जाती थी उनका आज के परिवेश में हिट होना काफी मुश्किल है। हर क्षेत्र में गिने चुने लोग ही चोटी पर बने रह सकते हैं। उनके अलावा आम जनता का ध्यान उस क्षेत्र में सक्रीय अन्य कलाकारों पर कम जाता है। एक शैली अगर लोग पसंद करेंगे तो कुछ ही दिनों में उस से ऊबकर कंटेंट क्रियेटर से कुछ नया करने की मांग करेंगे। अगर कलाकार कुछ नया नहीं कर पाता तो लोग अन्य विकल्पों की तरफ बढ़ जाते हैं। 

*) - अगर आर्टिस्ट के काम में मौलिकता की कमी हो और वह अधिकांश अन्य कलाकारों के काम को आधार बनाकर कुछ करता हो तो एक समय बाद उसका काम आकर्षण खोने लगता है। ऐसे में अगर उसके मौलिक काम का स्तर औसत या उस से नीचे हो तो ना सिर्फ उसके प्रशंसक बल्कि वह खुद अपने आप में विश्वास खोने लगता है। अगर ऐसा हो रहा है तो उसे अपनी कमियों को पहचान कर उनपर काम शुरू कर देना चाहिए और ऐसे तरीकों पर काम करना चाहिए जिनका पालन कर उसके मौलिक काम का स्तर स्वीकार्य स्तर तक आ सके। 

*) - एक महत्वपूर्ण बात ये है कि किसी व्यक्ति के लिए सफलता और उस स्तर पर बने रहने का मोल क्या है? अगर जीवन में सफलता जल्दी मिल जाये तो उसका मोल आसान लगने लगता है जबकि बड़े स्तर पर बने रहने के लिए निरंतर पापड़ बेलते रहने पड़ते हैं। थोड़ा बहुत आलस्य या ब्रेक अपनी जगह ठीक है पर मेहनत के विकल्प या काल्पनिक दिलासे ढूँढ लेने से आप एक भूला-बिसरा नाम बनकर रह जाते हैं। 

*) - जगह और माहौल बदलने के बाद आर्टिस्ट को अपने क्षेत्र से जुड़े कई घटक पता चलते हैं। उसे लगता है कि अभी कुछ बनाने से पहले कितना कुछ सीखना बाकी है। इस कारण जिस खुलेपन से कलाकार पहले काम करता था वो बरक़रार नहीं रहता। लोगों के साथ-साथ उसकी खुद की अपेक्षा होती है कि हर बार वह पहले से बेहतर करे और अगर किसी वजह से ऐसा नहीं हो पाता तो वह अपने सीमित दायरे में बँध जाता है। इस घेरे से निकलने के लिए ज़रूरी है कि धीमी ही सही पर कुछ रचनात्मक गति बनी रहे, प्रयोग होते रहें। 

भविष्य में क्या होगा ये कहा नहीं जा सकता पर अगर श्रद्धा गायन की अन्य विधाओं, शैलियों को सीखकर नये प्रयोग करें तो स्थिति में काफी सुधार हो सकता है। आशा है ऐसा ही हो!
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#ज़हन

Monday, November 6, 2017

खौफ की खाल (नज़्म) #ज़हन - पगली प्रकृति कॉमिक


Poetry and artwork from Pagli Prakriti (Vacuumed Sanctity) Comic

खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
...और नदी अपनों को बहा कर ले गयी!
बहानों के फसाने चल गये,
ज़मानों के ज़माने ढल गये...
रुक गये कुछ जड़ों के वास्ते,
बाकी शहर कमाने चल दिये। 

खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
गुड़िया फ़िर भूखे पेट सो गयी...
समझाना कहाँ था मुश्किल, 
क्यों समीर को मान बैठे साहिल?
तिनकों को बिखरने दिया,
साये को बिछड़ने दिया?

खौफ की खाल उतारनी रह गयी,
रुदाली अपनी बोली कह गयी...
रौनक कहाँ खो गयी?
तानो को सह लिया,
बानो को बुन लिया। 
कमरे के कोने में खुस-पुस शिकवों को गिन लिया। 

खौफ की खाल उतार दो ना...
तानाशाहों के खेल बिगड़ दो ना!
शायद उतरी खाल देख दुनिया रंग बदले,
एक दुकान में गिरवी रखा हमारा सावन... 
शायद उस दुकान का निज़ाम बदले!
घिसटती ज़िन्दगी में जो ख्वाहिशें आधी रह गयीं,
कुछ पल जीकर उन्हें सुधार दो ना!
खौफ की खाल उतार दो ना...
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#mohitness #mohit_trendster #abhilash_panda #freelance_talents

Sunday, October 22, 2017

Updates

*) - Chosen as one of the top writer by Dawriter website. 
*) - My article about Sooraj Pocket Books and Novelist Shubhanand (Jagran Junction)
*) - Over 900 points now, Google Maps Local Guides Program
*) - DD Birthday Wish :)
*) – 6 new podcasts on lyrical comedy, noise pollution and art. – SoundCloud Profile
*) – Retired from MMO The Wrestling Game S3 World #39 (August 2017) 😦
*) – Kavya Comics series featured by Nazariya Now
*) – COP Exclusive Interview

Friday, October 13, 2017

Pages from upcoming Comics: Vacuumed Sanctity, Samaj Bhakshak...


Comic: Vacuumed Sanctity - पगली प्रकृति


Art - Abhilash Panda, Story - Mohit Trendster, Colors and Calligraphy - Shahab Khan
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Comic: Samaj Bhakshak
Art - Anand Singh, Story - Mohit Trendster, Colors - Harendra Saini
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*Untitled WIP project with Manabendra Majumder

ध्वनि प्रदूषण का घातक प्रभाव (Hindi Educational Podcast) #ज़हन

New Podcast (224 Seconds)
Also on Soundcloud and Vimeo
ध्वनि प्रदूषण के एक अनछुए पहलु से रूबरू करवाती रूबरू दुनिया की पहली ऑडियो पॉडकास्ट। जल्द ही रूबरू दुनिया एप पर आपको ऐसी कई पॉडकास्ट सुनने को मिलेंगी।
 - मोहित शर्मा ज़हन #mohitness #mohit_trendster

Friday, September 29, 2017

जीवन में विलेन ढूँढने की आदत (लेख) #ज़हन


कॉमिक्स लेखन में एक कहावत है, "विलेन भी अपनी नज़रों में हीरो होता है।" खलनायक अपनी छोटी भूल से लेकर जघन्य अपराधों तक का इतनी चपलता से स्पष्टीकरण देता है कि लगे उस स्थिति में सबसे ठीक विकल्प वही था। बचपन से हमें बुराई पर अच्छाई की जीत वाली कई गाथाओं का इस तरह रसपान करवाया जाता है तो कोई भी बुरा नहीं बनना चाहता। अब सवाल उठते हैं कि अगर कोई बुरा नहीं तो फिर समाज में फैली बुराई का स्रोत क्या है? दुनिया में सब अच्छे क्यों नहीं? जवाब उस कॉमिक विलेन वाला है, 'अपनी पिक्चर में हर कोई नायक होता है।' दुनिया में ना कोई पूरी तरह अच्छा है और ना ही कोई बुराई का पुतला है। फिर भी खलनायक ढूँढने, बनाने की आदत हम सबके अंदर है। ये आदत कहाँ से जन्मी? शायद मानव मन को एक सांत्वना सी मिल जाती है और अपनी बुराइयों, कमियों से ध्यान हट जाता है। कभी-कभार परिवेश और घटनाओं के आधार पर किसी को डीमनाइज़ करना समझा जा सकता है पर जब यह आदत लोग अपने निजी जीवन के हर पहलु में लगाने लगें तो समस्याओं का जाल बन जाता है। 

*) - प्रकृति की कारस्तानी: नेचर का एक नियम होता है कि हर जैविक प्रजाति धरती पर हो रहे बदलाव के अनुसार खुद को ढालते हुए निश्चित विकास के साथ बढ़ती रहे। अब अगर सबसे विकसित दिमाग वाला प्राणी मनुष्य, बात बात पर अंतःकरण की आवाज़ सुनकर खुद पर सवाल करने लगेगा तो उस प्रजाति में अवसाद, हीन भावना आदि मानसिक समस्याओं का औसत काफी बढ़ जाएगा। ऐसा होने पर मानव प्रजाति के विकास में बाधा आ सकती है। इस कारण से आम इंसान का ध्यान बँटाने के लिए प्रकृति ने उसमे ऐसा तंत्र फिट किया है कि वह दुनियाभर की बुराई को मैग्नीफाई करके खुद को दिलासा देता रहता है कि "मैं तो फिर भी बहुत ठीक हूँ बाकियों से।" इस सोच को बढ़ावा देने में मीडिया का बड़ा योगदान है जिसे किसी नैरेटिव और मसाले के लिए लगभग हर कहानी में किसी ना किसी को खलनायक बनाने का शौक है। 

*) - घटनाओं की नवीनता: ...यानी रीसेन्सी ऑफ़ इवेंट्स का मतलब किसी व्यक्ति द्वारा अपनी सुविधानुसार पास की घटनाओं के हिसाब से मन बनाना। वहीं पहले हुई घटनाएँ जो उसकी याददाश्त के कम्फर्ट जोन से बाहर हों उन्हें सोच में शामिल ना करना। यहाँ सुविधा सिर्फ कुछ याद रखने के दायरे में ही नहीं बल्कि अपने एजेंडे के हिसाब से घटनाओं को रखने और हटाने में भी है। अक्सर सोशल मीडिया पर किसी राजनैतिक बहस पर आप ऐसा देख सकते हैं। किसी असत्यापित खबर पर हम इसी अनुसार सही और गलत पक्ष का निर्णय सुना देते हैं। 

*) - निजी जीवन: बाहरी घटक तो एक बार के लिए फिर भी संभाले जा सकते हैं पर अगर कोई इंसान अपने जीवन में अहम् किरदार लिए लोगो को डीमनाइज़ करना शुरू कर दे तब वह अनजाने में अपना ही नुक्सान करने लगता है। उसके पेशे, रिश्तों पर इसका बुरा असर पड़ता है। बिना किसी ठोस आधार के अपनी कल्पनाओं के अम्बार को आग लगाकर हम अपने जीवन के रावणो को ढूँढ लेते हैं। समय के साथ ये आदत प्रबल हो जाती है पर इतनी प्रत्यक्ष होकर भी हमें दिखाई नहीं देती। 

पूछें खुद से ये सवाल - उसकी जगह मैं होता तो क्या करता? 
क्या कोई ऐसी बात तो नहीं जो मुझसे अनदेखी रह गयी? 
कहीं मैं मन में गढ़ी बातों को असल बातों में मिला तो नहीं रहा?
इस मसले पर बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति की क्या राय होती?
मन के ध्यान बटाऊ टैक्टिस में फँसने के बजाय इन सवालों के ईमानदार जवाब कई मामलों में ग़लतफहमी दूर कर देंगे और शर्तिया 10 में से 8-9 बार आपकी कहानी में बिना बात कोई काल्पनिक खलनायक नहीं रहेगा। 
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Wednesday, September 6, 2017

New Hindi Quotes #मोहित_शर्मा_ज़हन


*) - अपने अनुभव, प्रतिभा और जो भी जीवन में अर्जित किया उसका मोल समझें पर आत्ममुग्धता से बचें। सामने वाले व्यक्ति को परसों पैदा हुआ ना मानें। 

*) - निष्पक्ष होना दुनिया की सबसे कठिन कला है। 

*) - किसी की सहनशीलता को उसकी कमज़ोरी मत समझें। इलास्टिक को इतना खींचने की आदत ना डालें कि वो ऐसी घड़ी में टूटे जब आपको उसकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत हो। 

*) - इतिहास कभी एक नहीं होता। इतिहास नदी की धाराओं सा इधर-उधर बह जाता है और लोग अपनी विचारधारा के हिसाब से उन धाराओं को पकड़ कर अपना-अपना इतिहास चुन लेते हैं। जो मानना है मानो पर मानने से पहले सारी धाराओं का पानी ज़रूर पीकर देखना....जिस पानी की आदत नहीं उसे पीकर शायद तबियत बिगड़ जाए पर दिमाग सही हो जाएगा। 

*) - सुरक्षित राह पर जीवन को तीन से पौने चार बनाने में बाल सफ़ेद हो जाते हैं और कोई दांव लगाकर तीन से तेईस हो जाता है। अब पौने चार से शून्य दूर होता है या  तेईस?

*) - सही, सकारात्मक और बिना किसी विचारधारा के प्रभाव में आकर किये गए सामाजिक अनुकूलन से समाज की अनेकों कुरीतियों से छुटकारा पाया जा सकता है।

*) - अक्सर भूल जाने लायक छोटी जीतों के गुमान में लोग याद रखने लायक बड़ी बाज़ी हार जाते हैं। 

*) - कला के क्षेत्र में केवल यह सोचकर खुद को रोक लेना सही नहीं कि ऐसा पहले हो चुका होगा। शायद हो चुका हो....पर आपके नज़रिये और अंदाज़ से तो नहीं हुआ ना!
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#mohitness #ज़हन ##mohit_trendster

Friday, August 25, 2017

3 Million :) Thank you, everyone!


My e-books, comics, e-zines crossed 3 Million online reads/downloads on Google Play Books. Amazing response on other apps/websites Readwhere, issuu, Dailyhunt, Scribd, edocr etc. Thank you to each and every one of you for the love and support! :) #mohitness #ज़हन #mohit_trendster #freelance_talents

Tuesday, August 1, 2017

खाना ठंडा हो रहा है...(काव्य) #ज़हन


साँसों का धुआं,
कोहरा घना,
अनजान फितरत में समां सना,
फिर भी मुस्काता सपना बुना,
हक़ीक़त में घुलता एक और अरमान खो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है। 

तेरी बेफिक्री पर बेचैन करवटें मेरी,
बिस्तर की सलवटों में खुशबू तेरी,
डायन सी घूरे हर पल की देरी,
इंतज़ार में कबसे मुन्ना रो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है। 

काश की आह नहीं उठेगी अक्सर, 
आईने में राही को दिख जाए रहबर,
कुछ आदतें बदल जाएं तो बेहतर,
दिल से लगी तस्वीरों पर वक़्त का असर हो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है। 

बालों में हाथ फिरवाने का फिरदौस, 
झूठे ही रूठने का मेरा दोष,
ख्वाबों को बुनने में वक़्त लग गया,
उन सपनो के पकने का मौसम हो चला है...
...और खाना ठंडा हो रहा है। 

तमाशा ना बनने पाए तो सहते रहोगे क्या?
नींद में शिकायतें कहते रहोगे क्या?
आज किसी 'ज़रूरी' बात को टाल जाना,
घर जैसे बहाने बाहर बना आना, 
आँखों को बताने तो आओ कि बाकी जहां सो रहा है...
...और खाना ठंडा हो रहा है। 

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Thumbnail Artwork - Nadezhda Repina‎
#मोहित_शर्मा_ज़हन #mohitness #mohit_trendster
*Second poem in Matlabi Mela (Kavya Comic Series)

Saturday, July 29, 2017

सीमा समाप्त! (हिन्दी हॉरर कहानी) #ज़हन

रात के 3 बजे सरोर पुलिस थाने से सटे कमरे में सोते दीवान जी की किवाड़ ज़ोर से धड़धड़ाई। यकायक हुई तेज़ आवाज़ से दीवान जी उठ बैठे। उन्होंने तो जूनियर मुंशी को थाने पर किसी इमरजेंसी के लिए बैठाया था फिर ऐसा क्या हो गया जो उनकी ज़रुरत आन पड़ी? शायद कहीं रोड होल्डअप या डकैती पड़ गई। असल में 62 वर्ष और कागज़ पर साढ़े 59 साल की उम्र में रिटायरमेंट के करीब दीवान जी को किसी झंझट में पड़ना पसंद नहीं था इसलिए वो नौकरी में कम से कम जोखिम चाहते थे। आजकल लोग पुलिस पर केस भी बहुत करने लगे थे। उन्होंने मन बनाया कि अगर संभव होगा तो वो अपनी जगह जूनियर मुंशी को भेज देंगे। 

जब किवाड़ धड़-धड़ कर टूटने को हुई तो दीवान जी चिल्लाये। 

"अरे! रुको यार आ रहा हूँ। ऐसा कौनसा मंत्री मर गया यहाँ छोटे से सरोर में....वो भी आधी रात को?"

अँधेरे में दीवान जी को अपने थाना इंचार्ज दरोगा जी की झलक सी दिखी और उनके पीछे बनल थाने के इंचार्ज इंस्पेक्टर साहब थे, जिनके थाने की सीमा सरोर से मिलती थी। 

"ओह जय हिन्द साहब! किसी हमराह सिपाही को भेज दिया होता आपने। मैं वर्दी पहन कर अभी आया।"

मुँह-हाथ धोकर वर्दी पहनने में दीवान जी को 6-7 मिनट लगे, उन्हें अजीब लगा कि इस बीच थाने में बैठने के बजाए के बजाये दोनों अफसर उनके निवास के बाहर अँधेरे में खड़े रहे। 

इंस्पेक्टर साहब खरखराती आवाज़ में बोले - "हमारे साथ एक मौके पर चलना है।"

दोनों तेज़ कदमों से कुछ लंगड़ाते हुए से चलने लगे। आधी नींद से जगे दीवान जी को लगा कि या तो कोई पैसे की बात है या कहीं हाथ से निकली वारदात पर लिखा-पढ़ी कैसे की जाए इसलिए पूरे थाने में बिना किसी सिपाही को बुलाये सिर्फ उन्हें उठाया गया। जीप में दोनों अधिकारी आगे बैठ गए और दीवान जी पीछे आ गए। बैठने पर उन्हें एक व्यक्ति बंधा हुआ दिखा जिसके मुँह में कपडा ठूँसा हुआ था। उसे देखकर लगा किसी अपराधी का फर्जी एनकाउंटर होने वाला है। 

सीनियर अफसरों के सामने दीवान जी ने लिहाज़ में कुछ पूछना उचित नहीं समझा। बिजली की किल्लत वाले कसबे में अमावस की रात का अँधेरा ऊपर से जीप की जर्जर बैटरी से मोमबत्ती सी जलती हेडलाइट्स में कुछ देखना मुश्किल था। जीप तेज़ गति से बनल थाने की ओर बढ़ रही थी। बँधे हुए व्यक्ति को हिलते हुए देख इंचार्ज के सामने पॉइंट बनाने को आतुर दीवान जी बोले। 

"सर आपको तो ड्राइवर की ज़रुरत ही नहीं! एकदम एक्सपर्ट! और तू भाई नीचे पड़ा रह शान्ति से....अब हिलने उं-उं करने का क्या फायदा? जो पाप तूने किये होंगे साहब लोग उसी की सज़ा दे रहे हैं तुझे। मरने से पहले क्यों तकलीफ दे रहा है अपने-आप को?"

जीप दोनों थानों की सीमा पर एक सुनसान मोड़ पर आकर रुकी। 

दीवान जी ने कुछ नोटिस किया। 

"सर आप दोनों की वर्दी से खून टपक रहा है। कुछ किया था क्या इस बदमाश ने?"

जवाब में जीप की बैटरी में जाने कैसे जान सी आ गयी और दीवान जी को सब साफ़ दिखने लगा। उं-उं करके हिल रहा व्यक्ति कोई अपराधी नहीं बल्कि बनल थाने का दीवान था। दोनों अफसरों की वर्दी से खून इसलिए रिस रहा था क्योकि दोनों के शरीर को बीच में से आधा काटा गया था और अब बनल थाना इंचार्ज का आधा दांया भाग सरोर के दरोगा के बायें भाग से जुड़ा था और सरोर दरोगा का दायां हिस्सा बनल इंचार्ज इंस्पेक्टर के बायें हिस्से से जुड़ा था। इस कारण ही ये दोनों शरीर लंगड़ा कर चल रहे थे और इनकी आवाज़ें भी सामान्य से अलग थीं। 

भयावह मुस्कान बिखेरते चेहरों को देख डर से गिर पड़े और दूर घिसटने की कोशिश कर रहे दीवान जी के पास आकर दोनों शरीर बैठ गए और बोले - "पिछले हफ्ते यहाँ पड़ी डकैती तो याद होगी दीवान जी? डकैत यहाँ एक एस.यू.वी. गाडी रोक एक परिवार के 8 लोग लूट कर सबको गोली मार गए थे। यहाँ से गुज़र रहे राहगीरों ने 100 नंबर कण्ट्रोल रूम फोन किया तो सूचना दोनों थानों पर गई। अब चूँकि यह इलाका दोनों थानों की सीमा है तो दोनों ने मामला काफी देर तक एक-दूसरे पर टाल दिया और तड़पता हुआ परिवार मदद की देरी में दम तोड़ गया। वो बेचारी आत्माएं लौटी और ना इसका ना मेरा करके हम दोनों को आधा-आधा काट गई जैसे हम अपनी ज़िम्मदारी को काट गए थे। पुलिस कण्ट्रोल रूम ने फ़ोन किया आपको और बनल के दीवान जी को और दोनों ने अपने-अपने थाना इंचार्ज को ये आईडिया दिया कि क्यों झंझट में पड़ना। वो आत्माएं उन डकैतों को निपटाने गई हैं हम दो जिस्म, दो जानों को एक काम सौंप कर... जैसे हम अधकटे एक-दूसरे से चिपके हैं, वैसे ही तुम दोनों दीवान के शरीर हमें काट कर, अलग-अलग जोड़ने हैं एकदम जैसे हम दोनों के शरीर जोड़े उन आत्माओं ने। 

फिर उन दोनों लंगड़ाते शरीरों ने बनल के दीवान और सरोर के दीवान जी के शरीर बीच से फाड़ने शुरू किये जिस से आस-पास का समां मौत से पहले की चीखों से भर गया। दोनों मृत शरीर को एक-दूसरे के आधे हिस्सों से जोड़ दिया गया। अगले दिन उस सीमांत मोड़ पर लोगो को चार लाशें मिली। हर लाश में 2 अलग-अलग इंसानो की आधी लाशें थी। 

समाप्त!
 - मोहित शर्मा ज़हन
Artwork - Thanh Tuan
#mohitness #mohit_trendster #freelance_talents #trendybaba 

Tuesday, July 18, 2017

Collaborative painting with Artist Jyoti Singh


Painting details - Oil on canvas, size-24"24" inch, inspired by a pic... 
Concept description - प्रकृति से ऊपर कुछ नहीं! प्रकृति (मदर नेचर) स्वयं में एक सच है, प्रकृति पूरक है, पालक है और संहारक भी है। आज जो घटक इतना बड़ा दिख रहा है, कल प्रकृति उसे स्वयं में समा लेगी और घटक का अपना अस्तित्व लोप हो जाएगा।

Monday, July 17, 2017

हाँ पता है...(feat. जूता) - सामाजिक कहानी


सज्जन - "मोहित जी आपको पता है फिलिस्तीन के लोगो पर इजराइल कितना ज़ुल्म कर रहा है? म्यांमार में रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय का क्या हाल किया है वहाँ के बहुसंख्यक बौद्ध समाज ने?"
"हाँ जी! पता है...और मुझे नाइजीरिया में बोको हराम द्वारा सरकार से युद्ध और स्थानीय लोगो का नरसंहार पता है, दशकों से इराक़ और तुर्की द्वारा लगातार कुर्द, यज़ीदी समुदाय की एथनिक क्लेंज़िंग पता है, पाकिस्तान, ईरान के विरुद्ध बलूचिस्तान के लोगो संघर्ष पता है, अंगोला में चल रही कबीना लड़ाई पता है, रूस-चेचेन्या क्राइसिस पता है, रूस-यूक्रेन युद्ध पता है, इंडोनेशिया और पपुआ निवासियों के कुछ वर्गों की लड़ाई पता है, कोलंबिया, मेक्सिको और दक्षिण अमेरिकी देशों में नशे के व्यापार में चल रहे संघर्ष पता हैं, इतना ही नहीं माली, सूडान, दक्षिण सूडान, सीरिया, कांगो, सोमालिया, यमन, फिलीपींस, अफगानिस्तान, केंद्रीय अफ्रीका गणराज्य में चल रहे गृह युद्धों के बारे में पता है। बाकी दुनियाभर में कई छोटे-बड़े समुदाय आपस में या स्थानीय सरकारों से संघर्ष कर रहे हैं और अनेकों समुदाय संघर्ष करते-करते लुप्त हो गए।
मुझे एक बात और पता है, तुम मिडिल क्लास परिवार से हो जिनका जीवन खुद में एक जंग है। पहले अपनेआप को इतना काबिल बनाओ कि किसी गलत को सही कर सको, अपने परिवार से बाहर भी लोगो की मदद कर सको। अगर ऐसा ना कर पाओ तो गलत को गलत ज़रूर कहो पर फिर हर तरह के गलत को गलत कहो पर तुम तो मज़हब के हिसाब से ज़ुल्म देख रहे हो जो गलत है। अगर तुम्हे हर ज़ुल्म पर एक जैसा दर्द नहीं होता तो थू है तुम्हारी सोच पर! अब आगे क्या करना है पता है ना?"
सज्जन - "हाँ मोहित जी! मैं जूता उठाकर अपने मुँह पर मार लेता हूँ।"
"अरे नहीं भाई, मेरा मतलब था कि अब काम पर ध्यान दो और तरक्की करो...ताकि जिन बातों पर परेशान होते हो उन्हें बदलने की कोशिश करने लायक बन सको।"
कुछ देर बाद - 
सज्जन - "समझ गया! मैं चलता हूँ।"
"रुको! मुँह इधर करो, जूता तो खाते जाओ।"
समाप्त!
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#मोहित_शर्मा_ज़हन
Artwork - Neil Wilson
#mohitness #civilwars #crisis #selectiveoutrage #media

Monday, July 10, 2017

बहाव के विरुद्ध (कहानी) #ज़हन

एक गायन टीवी शो के दौरान चयनित प्रतिभागी को समझते हुए एक निर्णायक, मेंटर बोला। 
"अपनी कला पर ध्यान दो, तुम्हारा फोकस कहाँ है? मैं नहीं चाहता कि तुम इस जेनरेशन के सुरजीत चौहान या देविका नंदानी कहलाये जाओ। क्या तुम्हे अपने माँ-बाप का सिर शर्म से झुकाना है?" 

देहरादून में अपने घर पर टीवी देखते हुए सुरजीत चौहान के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था पर वह नकारात्मक बातें, ताने नज़रअंदाज़ करने की पूरी कोशिश करता था। उसे इंटरनेट का ज़्यादा शौक नहीं था पर बच्चो के कहने पर नया स्मार्टफोन लिया था। आज हिम्मत जुटाकर अपना नाम इंटरनेट पर खोजा। उसके और देविका के नाम पर कई न्यूज़ रिपोर्ट्स, आर्टिकल, वीडिओज़ थे। किसी में उनपर जयपुर में दर्ज हुए धोखाधड़ी के केस की खबर थी, तो किसी में ड्रग्स रखने के आरोप। 21 साल पहले सुरजीत और देविका ऐसे ही एक गायन टीवी शो में प्रतिभागी थे। शुरुआती हफ्ते ठीक बीतने के बाद अचानक एकदिन दोनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। यहाँ उन्होंने टीवी चैनल मैनेजमेंट पर शो के वोट्स में हेरफेर, पैसों के गबन और कास्टिंग काउच जैसे गंभीर आरोप लगाए। उस दौर में ये एक बड़ी खबर बनी पर कुछ दिनों में खबर का स्वाद कम होने के साथ बात आई गई हो गयी। दोनों को तुरंत शो से निकाल दिया गया और इनपर दर्जनों मामले दर्ज हो गए वो भी ऐसी जगहों पर जहाँ ये कभी गए ही नहीं। उस समय इन्होने भी उपलब्ध सबूतों के साथ टीवी चैनल के मैनेजमेंट पर कुछ केस किये। मुंबई में संघर्ष करने गए इन युवाओं पर प्रेस वार्ता के बाद ऐसा ठप्पा लगा कि उन्हें कहीं काम नहीं मिला और कुछ महीनों बाद दोनों अपने-अपने शहरों को लौट आये। सपनों के शहर में सपनों को चकनाचूर होता देखने के बाद इन प्रतिभावान गायकों ने साधारण निजी नौकरियां पकड़ ली। दोनों तरफ से दर्ज हुए मामले या तो रद्द हो गए या अनिर्णीत घिसटते रहे। किसी भी केस में सुरजीत और देविका को सज़ा नहीं हुई थी पर झूठ इतनी बार दोहराया जा चुका था कि आम जनता आरोपों को सच मानती थी। वो टीवी चैनल आज 2 दशक बाद भारत के सबसे बड़े चैनल्स में से एक है। 

उधर जौनपुर में देविका एक 15 साल के किशोर के विडिओ पर मुस्कुरा रही थी, जिसमे वो अपने पैदा होने से 6 साल पुरानी न्यूज़ क्लिप्स के आधार पर अर्जित जानकारी के अनुसार देविका और सुरजीत का मज़ाक उड़ा रहा था। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब सुरजीत, देविका यह नहीं सोचते कि काश हमने हिम्मत ना दिखाई होती...काश हम भी औरों की तरह बहाव में बहते रहते। 

समाप्त!
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#mohitness #mohit_trendster #मोहित_शर्मा_ज़हन

Friday, June 23, 2017

New collaborative painting


Acrylic Painting, Artist - Jyoti Singh (June 2017)


Couple of previous collaborative paintings (with Jyoti) featured in The Hindu Newspaper event update.

Wednesday, June 7, 2017

Book Review: Ramblings of a Madman Vol. 1 (Siddhant Shekhar)


#Trendster_Approves Ramblings of a Madman Vol. 1 by Siddhant Shekhar
Amazon India Link - https://goo.gl/zm1Ih4
Review on Goodreads - https://www.goodreads.com/review/show/2021686435
P.S. Upcoming Book - Wife-beater ka Love letter

Siddhant Shekhar's story collection has been 4 years coming - and is every bit worth the wait. Ramblings of a Madman offers humor, tragedy, raves-rants and interesting human interactions in experimental backdrops in a language that is factual, playful and profound. Author's experience in science, music, literature and procrastination is a lethal mix to create extraordinary story plots. He reminds me of legend artist-author Mr. Bharat Negi. As a result of variety and vibrancy of these 13 tales, one would be hard-pushed to find an underlying theme...from 1984 anti-sikh pogroms to after death dimensions, from uber AI Robots to Mata Parvati, each of the stories collected here explore the boundaries of imagined realities. In fact, it would be ablative to seek a common subject in a book whose major accomplishments involve the awesomesauce spread of topics, dialogues and characters. This is a truly impressive collection, and will entertain and 'enlighten' in equal measure.
Rating - 9/10


Cover by Ajitesh Bohra

Sunday, May 28, 2017

Anik Planet Latest Issues #update


1 Story, 'Bogus Aliens' - Anik Planet science fiction special issue (May 2017).


1 Article - Anik Planet Female Empowerment special issue (March 2017) 
Publisher - Comics Our Passion 

Wednesday, May 3, 2017

TWG Update 2017


Still playing TWG, locking horns with the masters and winning Highest level (Level 21, after the format change) leagues, tournaments...consistent performance against top ranked players like SG, MH...Also active on another servers. Love this MMO Game...will retire soon! 

Saturday, April 15, 2017

रूहानी नाटक (कहानी) #ज़हन


मेरा नाम कृष्णानंद है और लोग मुझे किशन कहकर बुलाते हैं। 9 साल की उम्र में अपने गांव से बिना सोचे लखनऊ आया, वैसे सोचकर भी क्या कर लेता...नौ साल का दिमाग क्या सलाह देता? सीखने में आम बच्चो जैसा नहीं था तो मुझे मंदबुद्धि कहा जाता था, सोने पे सुहागा यह कि मैं हकलाता था। शहर तो आ गया पर यहाँ रहने लायक कोई काम भी तो आना चाहिए था। एक थिएटर उस्ताद ने अपनी शरण में लिया और मैं उनके रंगमंच में साफ़-सफाई, कपड़ो-मंच का रखरखाव जैसे काम करने लगा। दूर से नाटक के कलाकारों को देखते हुए कई बार उनकी टोली में मिल जाने मन किया पर फिर अपनी कमियों को देखकर खुद को रोक लिया। अक्सर सबके जाने के बाद खाली थिएटर में पूरे मन के साथ घंटो अपने बनाये 'शो' करता। ऐसा करते हुए कितने साल बीत गए। आज जब किसी तरह हिम्मत कर के उस्ताद को यह बात बतानी चाही तो पूरी टोली मुझपर हँसने लगी। मेरे बात करने के लहज़े का ना जाने कितना मज़ाक उड़ाया गया। यकीन नहीं हुआ ये सब वही लोग हैं जो सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने की बातें करते हैं, जागरूकता फैलाते हैं। अब और कितना संघर्ष करूँ? जीवन भर घिसट-घिसट के क्यों बिताऊं? क्या फायदा इन सबके बीच रहकर इस अधूरे जीवन को बिताने का? इस से बढ़िया तो मैं पैदा ही ना हुआ होता! अभी देर नहीं हुई है, मैं खुदखुशी कर लूँगा। 

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"किस ख़ुशी में कर लोगे खुदख़ुशी? हम करने ही नहीं देंगे!"

(**सामने के नज़ारे से किशन की आवाज़ गुम हो गई इसलिए नैरेटर को टेकओवर करना पड़ रहा है।**)

छत के बाहर की ओर टांग लटकाये बैठे किशन को झटका लगा और वह अंदर आकर गिरा। उसके सामने अलग-अलग मानव आकृतियों वाले भूत खड़े थे। उनकी मुखिया एक सुन्दर परी सी आत्मा बोल रही थी। अचानक जैसे उसके मोनोलॉग को सुन रही काल्पनिक प्रकृति जागृत हो गयी। किशन डर से जड़ हो गया। 

"डरो मत किशन! हम सब तुम्हे कुछ बातें बताने आएं हैं। कभी सोचा है रोज़ तुम आराम से उठते थे, हर दूसरे दिन तुम्हे लगता था कि आज तो तुम्हे पक्का देर हो जायेगी पर कभी ऐसा हुआ नहीं। तुम्हारे कमरे का किराया, बिजली-पानी का खर्च तुम्हारी मासिक आय से काट लें तो 50 रुपये बचते हैं...पर जब भी तुम्हारा मन कोई मिठाई, आइस क्रीम खाने को होता, किसी गरीब की मदद करने को होता तो तुम्हारी जेब से ज़रुरत भर के पैसे निकल आते। थिएटर टोली में सब कहते हैं कि किशन कभी बीमार नहीं पड़ता, सही कहते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि तुम्हे कभी चोट भी नहीं लगती। तुम्हारे घर पर हर महीने माँ-बाप के खर्चे लायक मनी आर्डर जाता है....अरे वो तो छोडो, एक मित्र से तुम्हे ना कहने मे दिक्कत हुई और तुमने उस से जीवन बीमा पॉलिसी खरीद ली, फिर भूल गए। उस पॉलिसी का प्रीमियम ढाई साल से हर 3 महीने बिना नागा जमा हो रहा है। कभी सोचा है यह सब कैसे हो रहा है? कौन और क्यों कर रहा है? 

कैसे सोचोगे? तुम बहुत भोले हो! तुम्हारी कला और मन में मिलावट नहीं है। किसी को दिखाने के लिए लोग जो आडम्बर ओढ़ते हैं उससे तुम कोसो दूर हो। हम सब हर रात तुम्हारे नाटक देखने आते हैं। अब तो बाहर के शहरों के भूत तक सिर्फ तुम्हारे लिए यहाँ आते हैं। जब तुम अपने सोचे नाटकों पर माइम करते हुए दर्जन किरदारों के स्वांग रचते हो तो तुम्हारे रचना संसार के आगे बाहर की दुनिया बहुत छोटी लगने लगती है। दिनभर जिस संकोच और शर्म के पीछे कुछ शब्द बोलने से डरते हो, रात में उतनी ही गहनता से हकलाते हुए जब संवाद बोलते हो तो फिर जन्म लेकर तुम्हारे साथ रहने का मन करता है। जिस जीवन को इतनी आसानी से छोड़ने की बात कर रहे हो उसके केवल कुछ क्षणों के लिए हम सब आत्माएं अतृप्त घूम रही हैं।"

किशन का मन हल्का हुआ कि उसकी कला के हज़ारों कद्रदान हैं। उसने फिर से शुरुआत की और कुछ समय बाद अपने रूहानी कद्रदानों की मदद से लखनऊ मे एक सरप्राइज थिएटर शो बुक किया। शो के अनोखे प्रचार से कई वहाँ पहुंचे, जिनमे किशन का उस्ताद और उसकी उत्सुक टोली भी शामिल थी। किशन की मेहनत रंग लाई और सबको अपनी प्रतिभा से चौंकाते हुए उसने एक हिट शो दिया। टोली को अपनी बड़ी भूल का एहसास हुआ और किशन के माइम, कहानी के अनुसार उन लोगो ने कुछ अलग नाटक रचे। अब वह थिएटर किशन के नाम से जाना जाता है। हाँ, आज भी अक्सर किशन रात में खाली फिर भी 'भरे हुए' थिएटर में अपनी नाट्य प्रस्तुति देता है। 

समाप्त!
#मोहित_शर्मा_ज़हन #mohit_trendster

Thursday, April 13, 2017

सिर्फ मर्सिडीज़ ही चाहिए? (लेख) #मोहितपन


जब से लेखन, कला, कॉमिक्स कम्युनिटीज़ में सक्रीय हूँ तो ऑनलाइन और असल जीवन में कई लेखकों, कलाकारों से मिलने का मौका मिला है। एक बात जो मैं नये रचनाकारों को अक्सर समझाता हूँ वो आज इस लेख में साझा कर रहा हूँ।

3-4 साल पहले एक युवा कवि/लेखक ने मेरे ब्लॉग्स पढ़कर मुझसे संपर्क किया और हम ऑनलाइन मित्र बन गये। कुछ समय तक उनके काव्य, कहानियां पढ़ने को मिली फिर वो गायब से हो गये। वो अकेले ऐसे उदाहरण नहीं हैं, पिछले 11 वर्षों में कई प्रतिभावान लेखक, कलाकार यूँ नज़र से ओझल हुए। निराशा होती है कि एक अच्छे कलाकार को पता नहीं क्या बात लील गयी....कहने को तो व्यक्ति के वश से बाहर जीवन में कई बातें उसे रचनात्मक पथ से दूर धकेल सकती हैं पर एक कारक है जिसके चलते कई हार मान चुके कलाकार अपना क्षेत्र छोड़ देते हैं। एक लेखक का उदाहरण देकर समझाता हूँ। मान लीजिए नये लेखक को ऑनलाइन मैगज़ीन के लिए लिखने का मौका मिला, उसने मना कर दिया। मैगज़ीन पेज पर 700 फॉलोवर और प्रति संस्करण 450 डाउनलोड वाली ऑनलाइन पत्रिका पर वह अपना समय और एक आईडिया क्यों बर्बाद करे? इस क्रम में लेखक ने कई वेबसाइट को ठेंगा दिखाया कि वो उसके स्तर की नहीं। चलो सही है, थोड़े समय बाद उसे एक स्थानीय प्रिंट मैगज़ीन या अखबार में कुछ भेजने को कहा गया फिर उसने समझाया - जो प्रकाशन 2-3 शहरों तक सीमित हो उसमे छपना भी क्या छपना। पब्लिश हो तो इस तरह कि दुनिया हिल जाए! हम्म.... कुछ अंतराल बाद इनके किसी मित्र को लेखन अच्छा लगा तो अपनी शार्ट फिल्म के लिए स्क्रिप्ट की बात करने आया। जवाब फिर से ना और मन में ("अबे हट! ऐसे वेल्ले लोगो की फिल्म थोड़े ही लिखूंगा, सीधा चेतन भगत की तरह एंट्री मारूंगा।") और इस तरह मौके आते गये-जाते गये। अब ऐसे लेखक, कवि और कलाकार एक समय बाद भाग्य को दोष देकर हार मान लेते हैं और इनकी ऑनलाइन गिनी चुनी रचना पड़ी मिलती हैं और इनके मेल ड्राफ्ट्स में डेढ़-दो सौ आईडिया सेव होते हैं जो कभी दुनिया के सामने नहीं आते क्योकि इन्हे एक खुशफ़हमी होती है कि ये जन्मजात आम दुनिया से ऊपर पैदा हुए हैं तो आम दुनिया जैसी मज़दूरी किये बिना ये डायरेक्ट सलमान खान, ऋतिक रोशन के लिए फिल्म लिखेंगे या 90 के दशक के वेद प्रकाश शर्मा जी की तरह एक के बाद एक बेस्टसेलर किताबें बेचेंगे। मतलब खरीदेंगे तो सीधा मर्सिडीज़ बीच में साइकिल, बाइक, मारुती 800, वैगन आर, हौंडा सिटी लेने का मौका मिलेगा भी तो भाड़ में जाए....ऐसा नहीं करेंगे तो बादशाह सलामत की शान में गुस्ताखी हो जायेगी ना!

अरे! स्टेटस या अहं की बात बनाने के बजाए ऐसे छोटे मौकों को आगे मिलने वाले बड़े अवसरों के पायदान और अभ्यास की तरह लीजिए। अगर आप वाकई अपने जुनून के लिए कुछ रचनात्मक कर रहे हैं तो इन बातों का असर तो वैसे भी नहीं पड़ना चाहिए। मंज़िल के साथ-साथ यह ध्यान रखें कि आप सफर में धीमे ही सही पर आगे बढ़ रहे हैं या नहीं। आप कलात्मक क्षेत्र में जिन्हे भी अपना आदर्श मानते हैं उनकी जीवनी खंगालें, लगभग सभी का सफर ऐसे छोटे अवसरों से मिले धक्के से बड़े लक्ष्य तक पहुँचा मिलेगा। हाँ, अपनी प्राथमिकताएं सही रखें, ऐसा ना हो कि सामने कोई बड़ा अवसर मिले और आप किसी बेमतलब की चीज़ में प्रोक्रैसटीनेट कर रहे हों। संतुलन बिगड़ने मत दीजिये और खुद पर विश्वास बनाये रखें। गुड लक!

#ज़हन

Saturday, April 8, 2017

काश में दबी आह! (कहानी) #ज़हन


स्कूल जाने को तैयार होती शिक्षिका सुरभि पड़ोस के टीवी पर चलता एक गाना सुनकर ठिठक गई। पहले इक्का-दुक्का बार उसे जो भ्रम हुआ था आज तेज़ गाने की आवाज़ ने वो दूर कर दिया। जाने कब वो सब भूलकर सुनते-सुनते उस गाने के बोल पड़ोस के घर के गेट से सटकर गुनगुनाने लगी। अपनी धुन में मगन सुरभि का ध्यान पडोसी की 4 साल की बेटी पीहू के अवाक चेहरे पर गया और वह मुस्कुराते हुए सामान्य होकर वहाँ से स्कूल की तरफ बढ़ चली। आज स्कूल में सुरभि का मन नहीं लग रहा था, वो तो यादों के सागर में गोते लगा रही थी। किस तरह वह अपने गायक, गिटारिस्ट बॉयफ्रेंड घनश्याम के गानों, रियाज़ को घंटो सुना करती थी। उसके दर्जनों गानों के बोल सुरभि को आज भी याद थे। 

ज़िन्दगी को सुलझाते हुए जाने कब दोनों का रिश्ता उलझ गया और अपने सपनो का पीछा करता घनश्याम सुरभि से अलग हो गया। सुरभि में अपने परिवार से बग़ावत करने की हिम्मत नहीं थी। दूर जाने का दर्द तो दोनों को बहुत था पर अक्सर चल रहे पल इंसान के सामने कुछ ऐसे दांव रखते हैं कि बीते लम्हों की याद आने में काफी समय लग जाता है। कभी दो जिस्म, एक जान यह जोड़ा अब एकल जीवन में व्यस्त एक-दूसरे के संपर्क में भी नहीं था।  दोनों का लगा शायद वक़्त एक मौका और देगा पर कुछ सालों बाद सुरभि की शादी हो गई। आज वो खुश थी कि देर से सही पर कम से कम उसके पूर्व प्रेमी को अपनी मंज़िल तो मिली। शाम को लौटकर सबसे पहले उसने इंटरनेट पर इन गानों और घनश्याम का नाम ढूँढा। सुरभि हैरान थी कि इन गानों के साथ घनश्याम का नाम कहीं नहीं था। उसे लगा शायद घनश्याम ने मायानगरी जाकर अपना नाम बदल लिया हो पर गायको, म्यूजिक टीम की तस्वीरों, वीडिओज़ में घनश्याम कहीं नहीं था। सुरभि के आँसुओं की धारा में एक से अधिक दुख बह रहे थे। प्यार को जलाकर रिश्ते की आँच पर जो सपने पकायें थे उनके व्यर्थ जाने का दुख, घनश्याम की तरह हिम्मत ना दिखाने का दुख, उसका प्रेमी ज़िंदा भी है या नहीं यह तक ना जान पाने की टीस... 

उधर लालगंज से दूर फ़िरोज़ाबाद में चूड़ी की दूकान पर खरीददार महिला को कंगन पहनाते घनश्याम के कानो पर रेडियो में किसी और द्वारा गाये अपने गानों का कोई असर नहीं पड़ रहा था। उसकी आँखों की तरह उसकी बातें भी पत्थर बन चुकी थीं। 

समाप्त!

- मोहित शर्मा ज़हन